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________________ ६२ मेरी जीवन गाया वर्तमानमें यहाँ पर १ विशाल मन्दिर है, जो देहलीके लाला हरसुखरायजीका वनवाया हुआ है। बहुत ही पुष्ट और सुन्दर मन्दिर है। इस मन्दिरका निर्माण किस स्थितिमें किस प्रकार हुआ यह इसके इतिहाससे प्रसिद्ध है । मन्दिर में श्रीशान्तिनाथ स्वामीका विम्ब अतिरम्य है। । १२३१ सम्वत्का है। जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है । बीचमें एक वेदी है। उसके बाद एक 'नवीन विम्ब श्रीमहावीर स्वामीका है। यह सव है. परन्तु मनुष्योंकी प्रवृत्ति तो प्रायः इस समय अति कलुषित रहती है। यदि यहाँसे लोग शान्तभावको लेकर जावें तव तो यात्रा करनेका फल है, 'अन्यथा अन्यथा ही है। संसारवंधनके नाशका यदि यहाँ आकर भी कुछ प्रयास नहीं हुआ तो निमित्त कारणका क्या उपयोग हुआ ? दूसरे दिन मन्दिरमे प्रवचन हुआ। प्रवचनमे मैंने कहा कि आत्मामे अचिन्त्य शक्ति है फिर भी उपयोगमे नहीं आती। जल्पवादसे मुख मीठा नहीं होता। कर्तव्यवाद कथनवादसे भिन्न वस्तु है। आत्मा ज्ञाता दृष्टा है यह शब्दकी रचना उसमे राग-द्वेपकी कलुपतासे रक्षा करे, यह असंभव है। मनुष्योंकी प्रवृत्तिके हम कत्ता धर्ता नहीं, फिर भी वलात्कार स्वासी वनते हैं। मोही जीव कुछ कहे परन्तु उस स्वादको नहीं पहुँचता जो मोहाभावके समय होता है। यह निर्विवाद सिद्धान्त है कि ज्ञानमे ज्ञय नहीं जाता, फिर भी हम ज्ञयोंके व्यवस्थापक बनते ही जाते हैं। लौकिक व्यवहार भी इसी वल पर चल रहा है। लौकिक व्यवहार भी मोही जीवोंकी चेष्टाका विशेप फल है। यह तो लोकिक प्रक्रिया है। परमार्थसे विचारा जाय तव व्यवहार मात्र इसी मोहसे चल रहे हैं। अन्यकी कथा दूर रही, मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति भी उसी कपायके श्राधीन है। योगौरी प्रवृत्ति आत्मामे प्रदेश कम्पन करा दे परन्तु वन्ध जनक नहीं। यही कारण १-यह मूर्ति यहां वरमाने लाई गई है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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