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________________ मेरी जीवन गाथा ૩૦ -का परिणमन भिन्न भिन्न है । तब यह खेद करना कि यह समागम अच्छा नहीं व्यर्थकी कल्पना है । एक दिन भैंसी गये, मन्दिरकी दर्शन किये । यहाँ पर ५ घर जैन हैं । मन्दिर बहुत सुन्दर है परन्तु मनुष्योंकी रुचि धार्मिक कार्यों में थोड़ी है । यहाँ पर २ आदमियोंने प्रतिज्ञा ली कि हमारे जो खर्च होगा उसमे एक पैसा रुपया दानमें दिया करेंगे । यह ग्राम जाट लोगों का है । यहाँ पर १ चर्मकार है । उसकी प्रवृत्ति धर्मकी ओर है । पार्श्वनाथका चित्र रक्खे है और उसकी भक्ति करता है । यहाँ जो जैनी हैं वे सज्जन हैं। भोजनके बाद सामायिक की । अनन्तर स्त्रीसमाज आया । उसे कुछ उपदेश दिया परन्तु प्रभाव कुछ नहीं पड़ा । प्रायः स्त्रीपर्याय मोहसे भरी रहती है । इसका सहवास मोही जीव चाहते हैं और उनके संपर्कसे आत्मीय कल्याणसे चित रहते हैं । संसारमें सबसे कठिन मोह स्त्रीका है । अगले दिन फिर प्रवचन हुआ । प्रवचन करते करते मुझे लगा कि लोग ऊपरी दृष्टिसे सुनते हैं । पश्चात् उसका कुछ असर नहीं रहता केवल प्रशंसा ही रह जाती है । वक्ता आत्मीय परिणतिसे कार्य नहीं लेता । लौकिक मर्यादा ही में निज प्रतिष्ठा मान प्रसन्न हो जाता हैं । होता जाता कुछ नहीं । मोक्षमार्गकी सरल पद्धति है परन्तु वक्ताओंने उसे इतनी दुरूह बना दी है कि प्रत्येक प्राणी सुन कर भयभीत हो जाता है । धर्म जव आत्माकी परिणति है तब उसको इतना कठिन दिखाना क्या शुभ है ? | मनमें विचार आया कि अपनी दिनचर्या ऐसी बनाओ जो विशेषतया परका सम्पर्क न्यून रहे । पर सम्पर्कसे वही मनुष्य रक्षित रह सकता है जो अपनी परिणतिको मलिन नहीं करना चाहता । मलिनताका कारण परमें मोह द्वेप ही है । अतः स्वीय मोह राग द्वेप छोड़ो ।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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