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________________ मेरी जीवनगाथा J आपका स्वास्थ्य धीरे धीरे खराब होता गया । जब आपकी युके कुछ दिन ही शेष रह गये तब वोले महाराजजी । आपमें मेरी अगाध श्रद्धा है, मैं विशेष पढ़ा लिखा नहीं हूँ और न शास्त्रका विशेष ज्ञान ही मुझे हैं परन्तु गृहवाससे मेरे परिणाम विरक्त हो गये। पहलेसे ब्रह्मचारीके वेषमें रहा और श्रव क्षुल्लक दीक्षा धारण की है । मेरा अभिप्राय सदा यह रहा है कि आप विशिष्ट ज्ञानी तथा अन्तरात्माके पारखी हैं, इसलिये आपके निकट रहने से हमारा समाधिमरण होगा । मेरा स्वास्थ्य अव अच्छा होनेकी आशा नहीं है इसलिये आप जिस तरह वने उस तरह हमारा सुधार करें। हमारा उपकार अपकार आप पर निर्भर हैं । यह कहकर आपने सल्लेखना धारण करली । आश्रमके सब ब्रह्मचारी आपकी सेवामें लीन हो गये। मैं भी यथा समय उन्हें संबोधता रहता था । मेरा तो उनसे यही कहना था कि इस समय अधिक चिन्तनकी आवश्यकता नहीं । इस समय तो आप इतना ही चिन्तन करो - ४८२ एगो मे सासदो अप्पा गाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ कुन्दकुन्द स्वामीके वचन हैं कि ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक आत्मा ही मेरा शाश्वत द्रव्य है । अन्य, कर्म संयोगसे होनेवाले समस्त भाव वाह्य भाव हैं। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं । शरीरादि पर पदार्थोंसे भिन्न हमारी आत्मा है। उसे कोई भी नष्ट करनेवाला नहीं है । यहाँ पर्यूषणके बाद आसोज वदी ४ को लोग वर्णी जयन्ती के समारोहका आयोजन कर रहे थे वहाँ श्री संभवसागरजीका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता जाता था । मैंने सब जगह सूचना करवा दी कि इस वर्ष जयन्तीका समारोह नहीं होगा, क्योंकि हमारा एक सहयोगी सन्त समाधि पर आरूढ़ है । यद्यपि जयन्ती उत्सव
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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