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________________ श्री क्षु० संभवसागरजी का समाधिमरण ४८१ हुए हैं । इस स्थितिमे अभी नहीं तो आगे चलकर व्यवहार धर्मसे लोगोंकी उपेक्षा हो जाना इष्ट नहीं है अतः दोनों नयों पर दृष्टि डालते हुए श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक आदि आचार्योंके समान पदार्थका निरूपण किया जाय तो जैनश्रुतकी परम्परा अक्षुण्ण बनी रहे । विद्वान् लोग यही चर्चा आपसे करना चाहते थे पर कार्यक्रमोंकी बहुलताके कारण मधुवनमे वह अवसर नहीं मिल सका। उत्सवमे आपके यात्रा संघकी ओरसे विद्यालयको १०००) समर्पित किया गया। उत्सवके बाद आपका संघ कलकत्ताकी ओर प्रस्थान कर गया। मेला विघट गया और हम भी ईसरी वापिस आ गये। श्री क्षु० संभवसागरजीका समाधिमरण श्री क्षुल्लक संभवसागरजी वारासिवनीके रहनेवाले थे । प्रकृतिके बहुत ही शान्त तथा सरन थे। जबसे क्षुल्लक दीक्षा आपने ग्रहण की तबसे बराबर हमारे साथ रहे । संसारके चक्रसे आप सदा दूर रहते थे तथा मुझसे भी निरन्तर यही प्रेरणा करते रहते थे, आप इन सब झंझटोंसे दूर रहकर आत्महित करें। एकवार शाहपुरमें मैं सामायिक कर रहा था और मेरे पीछे आप सामायिकमे वैठे थे। किसी कारण मेरे खेसमें आग लग गई, मुमे इसका पता नहीं था और होता भी तो सामायिकमेसे कैसे उठता? परन्तु आपकी दृष्टि अचानक ही उस आग पर पड़ गई और आपने मटसे उठकर हमारा जलता हुआ खेस निकाल कर अलग कर दिया । उस दिन उन्होंने एक असंभाव्य घटनासे हमारी रक्षा की।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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