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________________ अलीगढ़का वैभव मानते थे, क्योंकि उन्हींके उपदेशसे जैनधर्मके अध्ययनमें हमारी रुचि हुई थी। आपके द्वारा जैन जनतामें स्वाध्यायका विशेष प्रचार हुआ। आप जैनधर्मकी वृद्धिका निरन्तर प्रयत्न करते थे। यहीं पर एक छीपीटोला है । वहाँ पर ३ जिन मन्दिर हैं। इसी टोला मे श्री हकीम कल्याणराय जी रहते थे । आप महासभाके मुख्य उपदेशक थे। आपके द्वारा महासभाका सातिशय प्रचार हुआ। इस टोलामे १ मन्दिरमें श्री महावीर स्वामीकी पद्मासन प्रतिमा बहुत ही रम्य विराजमान है जिसे अवलोकन कर परम शान्तिका परिचय होता है। यहाँ बागके मन्दिरमें सार्वजनिक सभा हुई जिसमे बहुत वक्ताओके भाषण हुए। मेरा भी व्याख्यान हुआ। मैं वृद्धावस्थाके कारण पूर्ण रूपसे व्याख्यान नहीं दे सकता फिर भी जो कुछ कहता हूं हृदयसे कहता हूँ। मेरा अभिप्राय यह है कि आत्मा अपने ही अपराधसे संसारी बना है और अपने ही प्रयत्नसे मुक्त हो जाता है। जब यह आत्मा मोही रागी द्वेषी होता है तब स्वयं संसारी हो जाता है तथा जब राग द्वेप मोहको त्याग देता है तब स्वयं मुक्त हो जाता है, अतः जिन्हे संसार बन्धनसे छूटना है उन्हें उचित है कि राग द्वेष मोह छोड़ें। आत्मपरिणतिको निर्मल वनानेके जो उपाय हैं उनमें सर्वश्रेष्ठ आत्मावबोध है । परसे! भिन्न अपनेको मानो, भेदविज्ञान ही ऐनी वस्तु है जो आत्माका बोध करता है । स्वात्मवोधके विना राग द्वेपका अभाव होना अति कठिन क्या असंभव है अतः आवश्यकता इस बातकी है कि तत्त्वज्ञान सम्पादन किया जाय । तत्त्वज्ञानका कारण आगमज्ञान है। प्रागमज्ञानके लिये यथाशक्ति व्याकरण न्याय तथा अलंकार शास्त्रका अभ्यास करना चाहिये। में बोलने
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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