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________________ अलीगढ़का वैभव 'क्या चक्रमे फैंस अपनी शक्तिका दुरुपयोग कर रहे हो ? आत्माकी शान्ति पर पदार्थोके सहकारसे बन्धनमे पड़ती है और बन्धनसे ही चतुर्गतिके चक्रमें यह जीव भ्रमण करता है। हम क्या कहे ? तुमने श्रद्धाके अनुरूप प्रवृत्ति नहीं की। त्याग वह वस्तु है जो त्यक्त पदार्थका विकल्प न हो तथा त्यक्त पदार्थके अभावमे अन्य वस्तुकी इच्छा न हो। नमकका त्याग मधुरकी इच्छा बिना ही सुन्दर है। ___ अगले दिन प्रातः नियमसारका प्रवचन हुआ । उसमें श्री कुन्दकृन्द महाराजने जो आवश्यककी व्याख्या की वह बहुत ही हृदयग्राही व्याख्या है । तथाहि जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्म भणंति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ॥१४१॥ . अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं होता है उसे अवश कहते हैं और उसका जो कर्म है उसे अवश्य कहते हैं। वही भाव कर्म विनाश करनेके योग्य है.। उसीको निवृति मार्ग है ऐसा निरूपण किया है। कुन्दकुन्द स्वामीकी बात क्या कहे उनका तो एक एक शब्द ऐसा है मानो अमृतके सागरमें अवगाहन कर बाहर निकला हो। लोग हमारे जीवनचरित्रकी चर्चा करते हैं परन्तु उसमे है क्या ? जीवनचरित्र उसका प्रशंसनीय होता है जिसके द्वारा कुछ आत्महित हुआ हो। हम तो सामान्य पुरुप हैं । केवल जन्म मानुषका पाया परन्तु मानुष जन्म पाकर उसके योग्य कार्य न किया। मानुष जन्म पाकर कुछ हित करना चाहिये ।। माघ वदी ह सं० २.०५ को मध्याह्नकी सामायिक पूर्ण होते होते अलीगढ़के महानुभाव आ गये जिससे वहाँ के लिये प्रस्थान कर दिया। यहाँसे अलीगढ़ ३ मील था । १ मील चलकर वागमे ठहर
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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