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________________ मेरी जीवन गाथा निद्रा भङ्ग हो गई । मनमें नाना प्रकारके विकल्प उठने लगे | विचार आया कि तेरी आयु ७६ वर्षकी हो गई फिर भी इस चक्रमें पड़ा है । कभी ललितपुर, कभी सागर, कभी जवलपुर, कभी सागर विद्यालय और कभी वनारस विद्यालय । शरीरकी शक्ति दिन प्रति दिन क्षीण होती जाती है । भाग्यवश एक बार श्री पार्श्व प्रभुके पादमूलमें पहुँच गया था परन्तु मोहके जालमें पड़ वहाँ से वापिस आ गया । पक्वपानवत् शरीरकी अवस्था है । न जाने कब डालसे नीचे झड़ जाय इसलिये जब तक चलनेकी सामर्थ्य है तब तक पुनः श्री पार्श्वनाथ भगवान के पादमूलमें पहुँचनेका विचार कर । जहाँ से अनन्तानन्त तीर्थंकरोंने तथा वर्तमानमे वीस तीर्थकरोंने निर्वाण प्राप्त किया उस स्थानसे बढ़कर समाधिके लिये अन्य कौन स्थान उपयुक्त होगा ? वहाँ निरन्तर धार्मिक पुरुषोंका समागम भी रहता है । सागरमे तूं बहुत समय रहा है अतः यहाँके लोगोंसे आत्मीयवत् स्नेह है। श्री भगवती आराधनामें लिखा है कि सल्लेखना करनेके लिये अपना संघ अथवा अपना परिचित स्थान छोड़ कर अन्यत्र चला जाना चाहिये जिससे अन्तिम क्षण किसी प्रकार की शल्य अथवा चिन्ता आत्मामे न रह सके । ४१८ उक्त विचारधारामे निमग्न रहते हुए लगभग १ घंटा व्यतीत हो गया । उठकर समयसारका स्वाध्याय किया । तदनन्तर सामायिकमे बैठा । सामायिकमे भी यही विकल्प रहा कि जितना जल्दी हो यहाँसे गिरिराजके लिये प्रस्थान कर देना चाहिये । आकाश मेघाच्छन्न था इसलिये तत्काल तो यह विचार कार्य रूपमें परिणत नहीं कर सका पर मनमे जानेका दृढ़ निश्चय कर लिया। मैंने यह विचार मनमें ही रक्खा । कारण यदि प्रकट करता तो सागरके लोग रोकनेका प्रयास करते और मैं उनके संकोचमें पड़ जाता । २ दिन बाद ईसरीसे श्रीभगत सुमेरुचन्द्रजी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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