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________________ मेरी जीवन गाथा __ आत्मामे रागादि भावोंका उत्पन्न न होना अहिसा है और उन्हींका उत्पन्न होना हिसा है। अस्तु, हमको ऐसी प्रवृत्ति करना चाहिये जो हमारी प्रवृत्ति पर पदार्थोंके संसर्गसे दूषित न हो। आप लोग न तो स्वयं अहिसा धर्म पालते हैं और न पर को उसकी शिक्षा देते हैं। हम लोग भी नुतने अज्ञानी हो रहे हैं कि आपसे धर्म चाहते हैं। जो धर्म आप पालते हैं वह हम भी पाल सकते हैं। हमने यह समज्ञ रक्खा है कि आप लोग ही धर्मके उपदेष्टा हैं। आपको दान देनेसे हमे पुण्यवन्ध होता है यह भ्रम निकल गया। आप लोग भयभीत हैं, बड़े आदमियो की हाँ मे हाँ मिलानेवाले हैं, उनके विरुद्ध अक्षर भी नहीं बोल सकते। अर्थात् उनकी बात चाहे आगम विरुद्ध हो आप लोग उसका प्रत्युत्तर न देवेंगे अथवा हाँ मे हाँ मिला देवेंगे। परन्तु इससे हमे क्या ? जैसा आपको रुचे वैसा करो.... . .. "इतना कह कर वह तो चले गये, हम निरुत्तर रह गये। पश्चात् वहाँसे गमन कर एक स्थानमे निवास किया । सानन्द रात्रि व्यतीत कर चल दिये। भोजनादिकी व्यवस्था हुई, मध्यान्होपरान्त श्री पं० राजेन्द्रकुमार जी महामंत्री सदलबल आ गये। महान समारोह हो गया और आनन्दसे श्र जम्बूस्वामीकी निर्वाण भूमि पहुँच गये। पहुँचते ही स्मृति पटलमें पिछली बात याद आ गई कि यह वही भूमि है जहाँ पर श्री जैन महाविद्यालयकी स्थापना हुई थी और मैंने भी जिसमे रह कर अध्ययन किया था। आज कल दि० जैन संघका कार्यालय यहीं पर है । अनेक सुन्दर भवन संघके हैं, एक सररवती भवन भी है। एक दिगम्बर जैन गुरु कुल भी है जिसमें इण्टर तक पढ़ाई होती है। हम लोगोंका आतिथ्य सत्कार होनेके वाद सुन्दर भवनोंमें निवास कराया गया। संघका वार्षिकोत्सव था जिसके सभापति श्रीमान् सर सेठ हुकमचन्द्रजी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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