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________________ पर्व प्रवचनावली ३६३ जिससे उसने यह विचार कर कि अभी मुझे तो दो तीन ही दिन हुए हैं पर इस बेचारेको सात दिन हो गये हैं, अपनी रोटियाँ उसे दे दीं। वह आदमी तृप्त नहीं हुआ । तब ब्राह्मण अपनी स्त्रीकी ओर देखने लगा । ब्राह्मणीने कहा कि आप भूखे रहे और मैं भोजन करूँ यह कैसे हो सकता है ? यह कह उसने भी अपनी रोटियाँ उसे दे दीं। वह फिर भी तृप्त नहीं हुआ। तब दोनों लड़के की ओर देखने लगे । लड़के ने कहा कि हमारे वृद्ध माता पिता भूखे रहें और मै भोजन करूँ यह कैसे हो सकता है ? यह कह उसने भी अपनी रोटियाँ उसे खिला दीं। वह फिर भी तृप्त नहीं हुआ तब तीनों लड़केकी स्त्री की ओर देखने लगे । उसने भी कहा कि यद्यपि मैं आपके घर उत्पन्न नहीं हुई हूँ तथापि आप लोगोंके सहवाससे मुझमें भी कुछ-कुछ उदारता और दयालुता आई है यह कहकर उसने भी अपनी रोटियाँ उसे खिला दीं। वह भूखा आदमी तृप्त होकर आशीर्वाद देता हुआ चला गया। चारोंके चारों भूखे रह गये । महाराज | जिस स्थान पर उस गरीवने बैठकर भोजन किया था, मैं वहाँसे निकला तो मेरा नीचेका भाग स्वर्णमय हो गया । अब आधा स्वर्णमय और आधा चर्ममय होनेसे मुझे अपना रूप अच्छा नहीं लगा । इसी बीच मैंने सुना कि महाराज के यहाँ यज्ञमे हजारों ब्राह्मणोंका भोजन हुआ है । वहाँ जाकर लोदूँगा तो पूरा स्वर्णमय हो जाऊँगा । यही सुनकर मैं यहाँ आया और बड़ी देरसे जूठनमे लोट रहा हूँ परन्तु मेरा शेष शरीर स्वर्णमय नहीं हो रहा है। महाराज जान पड़ता है आपने यह ब्राह्मणभोजन करुणाबुद्धिसे नहीं कराया, केवल मान बढ़ाईके लिये लोकव्यवहार देख कराया है । ... कथा तो कथा ही है पर इससे सार यही निकलता है कि मान बढ़ाईके उद्देश्यसे दिया दान निष्फल जाता है। दान देते समय पात्रकी योग्यता और आवश्यकता
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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