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________________ ३८४ मेरी जीवन गाया ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान. रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह वाह्य तप हैं। उन्हें बाह्य पुरुष भी कर सकते हैं तथा इनका प्रवृत्त्वंश बाह्यमे दृष्टिगोचर होता है इसलिये इन्हें वाह्य तप कहते हैं। और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह आभ्यन्तर तप हैं। इनका सीधा सम्बन्ध आभ्यन्तर-अन्तरात्मासे है तथा उन्हें वाह्य पुरुष नहीं कर सत्ते इसलिये ये आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। उन सभी तपोंमें इच्चान्न न्यूनाधिक रूपसे नियन्त्रण किया जाता है इसीलिये इनसे नवीन कर्मोक्न बन्ध स्कता है और पूर्वके बंधे कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं। 'कर्मभेलको वज्रसमाना' यह तप कर्मरूपी पर्वतको गिरानेके लिये वज्रके समान है। जिस प्रकार वज्रपातसे पर्वतके शिखर चूर चूर हो जाते हैं उसी प्रकार तपश्चरणसे कर्म चूर चूर हो जाते हैं। जिन कर्मोके फल देनेका समय नहीं आया ऐसे कर्म भी तपके प्रभावसे असमयमे ही गिर जाते हैं। अविपाक निर्जराका मूल कारण तप ही है । तपके द्वारा किसी सांसारिक फलकी आकांक्षा नहीं करना चाहिये। जैन सिद्धान्त सम्मत तप तथा अन्य लोगोंके तपमे अन्तर बताते हुए श्री समन्तभद्र स्वामीने लिखा है अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनर्जन्म-जराजिहासया त्रयी प्रवृति समधीरनारणत् ।। हे भगवन् ! कितने ही लोग संतान प्राप्त करनेके लिये, कितने ही धन प्राप्त करनेके लिये तथा कितने ही मरणोचर कालमें प्राप्त होनेवाले स्वर्गादिकी तृष्णासे तपश्चरण करते हैं परन्तु श्राप जन्म और जराकी वाधाका परित्याग करनेकी इच्छासे इष्टानिष्ट
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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