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________________ ३७६ मेरी जीवन गाथा प्राप्त होते हैं । इससे यही तो निकला कि हम पर्यायवुद्धिसे हीअपनी जीवनलीला पूर्ण करते हैं। अस्तु विषय लम्बा हो गया है । स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों तथा मनके विपयों और पटकायिक जीवोकी हिंसासे विरत होना संयम कहलाता है। इन्द्रिय विपयोके आधीन हुआ प्राणी उत्तर काल में प्राप्त होनेवाले दुःखोंको अपनी चष्टिसे ओझल कर देता है । यहि कारण है कि वह तदात्र सुखमें निमग्न हो आत्महितले चश्चित हो जाता है। इन्द्रिय विषयोंके आधीन हुआ वनका हाथी अपनी सारी स्वतन्त्रता नष्ट कर देता है। रसनेन्द्रियके वशमें पड़ा मीन धीवरकी वंशीमे अपना कण्ठ छिना देता है। नासिकाके आधीन रहनेवाला भ्रमर सन्ध्याके समय यह सोचकर कमलमे बन्द हो जाता है कि रात्रि व्यतीत होगी, प्रातःकाल होगा, कमल फूलेगा तब मैं निकल जाऊंगा। अभी रात भर तो मकरन्दका रसास्वादन करूं पर प्रातःकाल होनेके पहले ही एक हाथी आकर उस कमलिनीको उखाड़ कर चला जाता है। भ्रमरके विचार उसके जीवनके साथ ही समाप्त हो जाते हैं। कहा हैरात्रिर्गमिष्यति भविष्यति तुप्रभातं. भास्वानुदेष्यति हसिम्यति पहननी । इत्यं विचारयत्यजगते दिन्फे, ___हा हन्त हन्त नलिनी गड उनहार || नेत्रेन्द्रियके वशीभूत हुए पतंग दीपकों पर अपने प्राण न्याहार
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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