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________________ ३७५ पर्व प्रवचनावली आत्मा ही उनका उपादान कर्ता है परन्तु चारित्रमोहके उदय बिना रागादि नहीं होते । होते आत्मामे ही हैं परन्तु विना कर्मोदयके यह भाव नहीं होते । यदि निमित्तके विना यह हों तब तो आत्माका त्रिकाल अगधित स्वभाव हो जावे सो ऐसा यह भाव नहीं । इसका विनाश हो जाता है अतः यह मानना पड़ेगा कि यह आत्माका निज भाव नहीं इसका यह अर्थ नहीं कि यह भाव आत्मामे होता ही नहीं। होता तो है परन्तु निमित्त कारणकी अपेक्षासे होता है। यदि निमित्त कारणकी अपक्षासे नहीं है ऐसा कहोगे तो आत्मामे मतिज्ञानादि जो चार ज्ञान उत्पन्न होते हैं वे भी तो नैमित्तिक हैं उनको भी आत्माके मत मानो। यह भी हमे इष्ट है, हम तो यहां तक माननेको प्रस्तुत हैं कि क्षायोपशमिक, औदयिक, औपशमिक जितने भी भाव हैं वे आत्माके अस्तित्व में सर्वदा नहीं होते। उनकी कथा छोड़ो, क्षायिक भाव भी तो क्षयसे होते हैं वे भी अबाधित रूपसे त्रिकालमें नहीं रहते अतः वे भी आत्माके लक्षण नहीं । केवल चेतना ही आत्माका लक्षण है यही अवाधित त्रिकालमे रहता है। इसी भावको पुष्ट करनेवाला श्लोक अष्टावक्र गीतामे अष्टावक्र ऋषिने लिखा है नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमह हि चित् । अयमेव हि मे बन्धो या स्यज्जीविते स्पृहा ।। अर्थात मैं देह नहीं हूँ और न मेरा देह है, न मैं जीव हूँ, मैं तो चित् हूँ चैतन्यगुणवाला हूँ। यदि ऐसा वस्तुका निज स्वरूप है तो आत्माको बन्ध क्यों होता है ? इसका कारण हमारी इस जीवमें स्पृहा है। यह जो इन्द्रिय मन वचन काय श्वासोच्छ्वास तथा आयुप्राणवाले पुतलेमें हमारी स्पृहा है यही तो बन्धका मूल कारण है। हम जिस पर्यायमे जाते हैं उसीको निज मान बैठते हैं। उसके अस्तित्वसे अपना अस्तित्व मान कर पर्याय बुद्धि हो पर्यायके अनुरूप ही समस्त व्यवहार कर पर्यायान्तरको
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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