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________________ मेरी जीवन गाथा ३५४ अनुसार कायसे प्रवृत्ति की जाय । नव इन तीनों योगोंकी प्रवृत्तिमे विषमता आ जाती है तव माया कहलाने लगती है। यह माया शल्यकी तरह हृदयमें सदा चुभती रहती है । इसके रहते हुए मनुष्यके हृदयमें स्थिरता नहीं रहती और स्थिरताके अभावमे उसका कोई भी कार्य यथार्थरूपमें सिद्ध नहीं हो पाता। ___ मान और लोभके वीचमें मोयाका पाठ आया है सो उसका कारण यह है कि माया मान और लोभ-दोनोंके साथ संपर्क रखती है। दोनोंसे उसकी उत्पत्ति होती है। मानके निमित्तसे मनुष्यको यह इच्छा उत्पन्न होती है कि मेरे वड़प्पनमे कोई प्रकारकी कमी न आ जाय परन्तु शक्तिकी न्यूनतासे बड़प्पनका कार्य करनेमें असमर्थ रहता है इसलिये मायाचाररूपी प्रवृत्ति कर अपनी हार्दिक कमजोरीको छिपाये रखता है। मनुप्य जिस रूपमें वस्तुतः है उसी रूपमे उसे अपने आपको प्रगट करना चाहिये। इसके विपरीत जब वह अपनी दुर्वलताको छिपाकर वड़ा बननेका प्रयत्न करता है तब मायाकी परिणति उसके सामने आती है। यही दम्भ है, माया है। जिनागम तो यह कहता है कि जितनी शक्ति हो उतना कार्य करो और अपने असली रूपमे प्रकट होओ। लोभके वशीभूत होकर जीव नाना प्रकारके कष्ट भोगता है तथा इच्छित वस्तुको प्राधिक लिये निरन्तर अध्यवसाय करता है। वह तरह-तरहकी छल-मुद्रताश्री को करता है। मोहकी महिमा विचित्र है। आपने पद्मपुराणम त्रिलोकमण्डन हाथीके पूर्व भव श्रवण किये होंगे। एक मुनिने एक स्थानपर मासोपवास किये। व्रत पूर्ण होनेपर वे तो कहीं अन्यत्र विहार कर गये पर उनके स्थानपर अन्यत्रसे विहार करते हुए दूसरे मुनि आ गये। नगरके लोग उन्हें ही मासोपवासी मुनि ममग उनकी प्रभावना करने लगे पर उन आगन्तुक मुनिको यह भार नहीं हुआ कि कह दें-मैं मासोपवासी नहीं है। महान न होन्दर भी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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