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________________ ३३४ मेरी जीवन गाथा प्रसन्नता हुई। मैंने कहा कि गुरुका अर्थ तो दिगम्बर मुद्राके वारी तपोधन मुनि हैं। श्रावण कृष्णा १ से चातुर्मास प्रारम्भ होजाता है अतः पूर्णिमा तक जहाँ जिनका चातुर्मास सम्भव होता वहाँ सब गुरु पहुँच जाते थे और गृहस्थ लोग उनके आगमनका समारोह मनाते थे। परन्तु आज दिगम्बर मुद्राधारी लोगोकी कमी हो गई इसलिए गुरुका अर्थ विद्यागुरु रह गया। यह भी बुरा नहीं क्योंकि एक अक्षरके देनेवालेके प्रति भी मनुष्यको कृतज्ञ होना चाहिये। 'न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' किये हुये उपकारको साधुजन भूलते नहीं। माता पिताकी अपेक्षा विचार करो तो गुरुका स्थान सर्वोपरि है क्योंकि उसके द्वारा इस लोक और परलोक सम्बन्धी हितकी प्राप्ति होती है। छात्रका हृदय जितना अधिक निर्मल होगा वह उतना ही अधिक व्युत्पन्न बनेगा । छात्रको निर्द्वन्द्व होकर अध्ययन करना चाहिये। आजका छात्र पढ़ना अधिक चाहता है पर पढ़ता विलकुल नहीं है । अनेक शास्त्रोंका अध्ययन करनेके बाद भी आज छात्र उस योग्यताको नहीं प्राप्त कर पाते जिस योग्यताको पहले छात्र एक दो पुस्तकोंको पढ़कर प्राप्त कर लेते थे। कितने ही छात्रोमें बुद्धि स्वभावतः प्रबल होती है पर उन्हे अनुकूल साधन नहीं मिल पाते इसलिये वे आगे बढ़नेसे रह जाते हैं। जिन्हें साधन अनुकूल प्राप्त हो जाते हैं वे आगे बढ़ जाते हैं। इस समय उन्हें चिन्ता ही किस वातकी है, आरामस बना बनाया भोजन प्राप्त होता है और गुरुजन तुम्हारे स्थानपर आकर पढ़ा जाते हैं। एक समय वह था कि जब हम विद्याध्ययन करनेके लिए मीलों दूर गुरुओंके स्थानपर जाया करते थे, हाथसे रोटी बनाकर खाते थे, गुरुओंकी शुश्रूषा करते थे तब कहीं कुछ हाथ लगता था पर आज तो सब सुविधाएँ हैं, फिर भी अध्ययन न हो तो दुर्भाग्य ही समझना चाहिए ।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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