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________________ ३०८ मेरी जीवन गाथा है। विद्यालय कालेजका भव्य भवन ५ खण्डोंसे शोभित है। इसमे २००० छान अध्ययन कर सकते हैं। कालेजके प्रिंसपल महोदय बहुत ही भव्य और विद्वान् हैं। आप वंगाली हैं। एम० ए० हैं। आपकी आयु ४० वर्षसे ऊपर होगी फिर भी ब्रह्मचारी हैं । बड़े दयालु और तत्त्ववेत्ता हैं। आपकी विचारधारा अति पवित्र है। व्यवहार निष्कपट है। मूर्ति सौम्य है। ऐसे मनुष्य चाहे तो वे जगत्का उत्थान कर सकते हैं। आजकल जो शिक्षापद्धति है उसमे भौतिकवादको खूब प्रोत्साहन मिलता है। साइंसका इतना प्रचार है कि वालकी खाल निकालते है। यहाँतक आविष्कार विज्ञान (साइन्स) ने किया है कि विना चालकके वायुयान चला जाता है तथा ऐसा अणुवम बनाया है कि जिसके द्वारा लाखों मनुष्योका युगपद् विध्वंस होजाता है। ऐसी चीर-फाड़ करते हैं कि पेटका बालक निकालकर बाहर रखके पेटका विकार निकाल देते हैं पश्चात् वालकको उसी स्थानपर रख देते हैं। यक्ष्मा रोगवालेकी पसली वाहर निकाल देते हैं किन्तु ऐसा आविष्कार किसीने नहीं किया कि यह आत्मा शान्तिका पात्र हो जावे । अशान्तिका मूल कारण परिग्रह है और सबसे महान् परिग्रह मिथ्यादर्शन है क्योंकि मिथ्यात्वके उदयमे यह जीव विपरीत अभिप्राय पोषण करता है। अजीवको जीव मानता है। शरीरमें आत्मबुद्धि करता है । जैसे कामला रोगवाला शहाको पीला मानने लगता है। एकबार मुमे श्री कुण्डलपर क्षेत्रपर चौमासा करनेका सुअवसर आया था। उस समय मुझे बड़े वेगसे मलरिया ज्वर आगया और बिगड़ते बिगड़ते पित्त ज्वर होगया। एक बंद्यन कहा तुम गन्ना चूसो, वर शान्त हो जायगा । मैंने चूमा किन्तु चिरायता व नीमसे भी अधिक कड्या लगा। मैंने उसे फेंक दिया। वाईजीने कहा-बेटा चूम लो। मैंने उत्तर दिया-कैसे ?
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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