SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ मेरी जीवन गाथा आपके आनेसे आनन्द रहा । लोगोंका प्रवचनका काम चलता रहा। आपके ज्ञान और चारित्रकी निरन्तर वृद्धि रहती है किन्तु समागम जितना उत्तम चाहिये उतना नहीं। प्रायः जितने आदमी मिलते हैं सर्व प्रशंसा द्वारा साधुको उत्तम रूप देना चाहते हैं। मेरा यह अनुभव है कि प्रशंसासे आदमीकी गुस्ता• लघुतामें परिणत हो जाती है। जहाँ प्रशंसा हुई वहाँ उसे सुन आदमी प्रसन्न हो जाता है और जहाँ निन्दा हुई वहाँ दुखी हो उठता है । वस्तुतः प्रशंसा और निन्दा दोनों ही विकृत रूप हैं। उन्हें निज मानना ही भयंकर भ्रम है, इस भ्रमका फल संसार है. संसार ही दुश्वनय है। संसार में प्राणीमात्रके स्निग्ध परिणाम होते हैं। जितने प्राणी हैं प्रायः वे सब परको निज मान अपनानेका प्रयत्न करते है। डाक्टर ताराचन्द्रजी बहुत ही सज्जन और योग्य पुस्प हैं। टीमगढ़से कम्पोटरके आनेमे विलन्य देख श्रापने उत्तम रीतिसे पट्टी वाँध दी। पट्टी बाँधनेके बादमे मन्दिर गया। वहाँसे मार स्वाध्याय किया पञ्चात् भोजन कर बैठा था कि इतनेमें टीरमगढसे कम्पोटर आगया और वलात्कार फिर पट्टी बाँध दी। बहुत गपं 'उड़ाई । प्रयोजन केवल इतना था कि द्रव्य हाथ आवे । संसारमै द्रव्य अर्थ जो जो अनर्थ न हों थोड़े हैं। इसके वशीभूत होरर मनुष्य याम स्वरूपको भूल जाता है । अथवा आत्मस्वरूपकी कथा छोटो, माज जितने मनुष्य रणक्षेत्र में जाते या जानेकी चेष्टा करते हैं ये रत एक अर्थार्जनके लिए ही प्रयास करते हैं । इस अर्थके लिए ग्रामी अदालतमें मिथ्या साक्षी दे पाता है। इस प्रर्थके लिए भाभाई के लिए विप देकर मारनेका प्रयास करता है, उन यी नि मनुष्य गरीबोंकी रोटी तक छीन लेता है, उस अर्थरे निगे प्रार हजारों स्थलों पर पण्डा लोग जलदी पृना कगार नहीं कर इस अर्थके लिये हजारों स्थान तीर्थरूपमें परिणत होगी, उमर
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy