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________________ मेरी जीवन गाथा होने लगता है और जहाँ इनका नाश होता है वहीं पूज्यताका व्यवहार होने लगता है । पूज्यता अपूज्यता किसी जाति विशेषवाले व्यक्तिकी नहीं होती। जहाँ पापो की निवृत्ति होकर आत्मश्रद्धा हा जाती है वहीं पूज्यता आ जाती है और जहाँ पापोंकी प्रवृत्ति होने लगती है वहीं अपूज्यताका व्यवहार होने लगता है । यद्यपि समस्त आत्माओंमे निर्मल होनेकी योग्यता है तथापि अनादि कालसे पर पदार्थोंका सम्बन्ध इस प्रकारका हो रहा है कि कुछ भी सुध बुध नहीं रहती। यह जीव निरन्तर शरीरके अनुकूल ही प्रवृत्ति करता है। आप लोगोंने वाजा वजवा कर वाह्य प्रभावना की। बहुत ही सुन्दर दृश्य दिखाया पर आभ्यन्तर प्रभावनाकी ओर प्रयास नहीं हुआ। यदि आभ्यन्तर प्रभावना हो जाय तो स्वर्णमे सुगन्धि हो जावे । अपनी ओर किसीका लक्ष्य नही। प्रायः सर्वत्र यही दृश्य देखा जाता है। हमारी प्रभावनासे अन्य लोग लाभ उठा लेते हैं पर हम तो दर्शकमात्र ही रहनका प्रयास करते हैं। अन्यको धर्मका स्वरूप आ जाये यही चेष्टा हमारी रहती है।। छीपीटोलाकी धर्मशालामे २ दिन ठहरे। तीसरे दिन श्री महावीर इन्टर कालेजका उत्सव था गाजे बाजेके साथ वहां गये । उत्सवम अच्छे अच्छे मनुप्योंका समारोह था। व्याख्यानादि का अच्छा प्रवन्ध था। जितने व्याख्यान हुए वे सब प्रायः लाक्कि पदार्थोके पोषक थे। पारमार्थिक दृष्टि लोगों की नहीं । यद्यपि याज शिनाका प्रचार अधिक है परन्तु पारमार्थिक दृष्टिकी ओर ध्यान नहीं । पहले समय में शिक्षाका उद्देश्य आत्मदिन था परन्तु वर्तमानकी शिक्षाका उद्देश्य अर्थाजन नीर कामसेवन है। प्राचीन ऋपियों ने कहा है कि दुःखाद्विभपि नितरामभिवाञ्छन मुबमतोऽदमायामन । टु ग्यापनारि मुग्यकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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