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________________ २३० मेरो जीवन गाथा १ वजेसे श्री महाराजकी अध्यक्षतामे व्रती सम्मेलनका उत्सव हुआ। जिसमे अनेक विवाद ग्रस्त विषयोंपर चर्चा हुई । एक विपय यह था कि यदि कोई त्रिवर्णवाला जैनधर्मकी श्रद्धासे सहित हो और जैनधर्मकी प्रक्रियासे आहार तैयार करे तो व्रती उसके घर भोजन कर सकता है या नहीं ? पक्ष-विपक्षकी चर्चा के बाद यह निर्णय हुआ कि जैनधर्मका श्रद्धालु त्रिवर्णवाला यदि जैनधर्मकी प्रक्रियासे आहार बनाता है तो व्रती उसे ग्रहण कर सकता है। ___एक विषय था कि भुल्लककी नवधा भक्ति होना चाहिये या नहीं ? इस विषय पर भी बहुत वाद-विवाद हुआ परन्तु अन्तर्म महाराजने निर्णय दिया कि नवधा भक्तिका पात्र मुनि है, जलक नहीं। जुल्लकको पड़गाह कर पादप्रक्षालन कराना तथा मन वचन काय और अन्न जलकी शुद्धता प्रकट कर आहार देना चाहिय।। __एक विषय निमित्त उपादानकी प्रबलताका भी था। इस पर लोगोंने अनेक प्रकारसे चर्चा की। वातावरण कुछ प्रशान्त मा हो गया परन्तु अन्तमे यही निर्णय हुआ कि जैनागम अनेकान्त दृष्टिसे पदार्थका निरूपण करता है अतः कार्यकी सिद्धिके लिये निमित्त और उपादान दोनों आवश्यक हैं। केवल उपादानमें कार्यकी सिद्धि नहीं हो सक्ती और न केवल निमित्तसे फिन्तु दोनोंकी अनुकूलतासे कार्यकी सिद्वि होती है। यह बात दूसरी है कि कहीं निमित्त प्रधान और कहीं उपादान प्रधान कथन हो पर उसका यह तात्पर्य नहीं कि दूसरेकी वहाँ सर्वथा उपेक्षा हो। __ चरणानुयोगके विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाले व्रतियोंतो महाराज शान्न भावसे उपदेश दिया कि जैनागममें व्रत न लेनेको 'अपराम नहीं माना है किन्तु लेकर उसमें दोप लगाना या मे भान सरना अपराध बताया है अतः 'समीच्य व्रतमादयमान पाल्यं अपनाः'
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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