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________________ मेरी जीवन गाथा है । यदि एक दृष्टिसे देखा जावे तो वर्तमान शिक्षा उनमें न होनेसे उन लोगोंकी पार्षधर्म श्रद्धा है तथा स्त्रीसमाजमे भी इस्कूली और कालेजी शिक्षाके न होनेसे कार्य करनेकी कुशलता है। हाथसे पीसना, रोटी वनाना तथा अतिथिको भोजन दान देने की प्रथा है। फिर भी शिक्षा देनेकी आवश्यकता तो है ही। यह शिक्षा ऐसी हो जिससे मनुप्यमे मनुष्यताका विकास प्रा जावे । यदि केवल धनोपार्जनकी ही शिक्षा भारतमे रही तो इतर देशों की तरह भारत भी पर को हड़पनेके प्रयत्नमे रहेगा और जिन व्यसनोंसे मुक्त होना चाहता है उनहीका पात्र हो जावेगा तथा भारतका जो सिद्धान्त था कि अयं परो निजो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरिताना तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ वह वालकोंके हृदयमे अङ्कित हो जाता था और समय पा कर उसका पूर्ण उपयोग भी होता था। अब तो वालकोंके मॉ वाप पहले ही गुरु जी से यह निवेदन कर देते हैं कि हमारे पुत्रको वह शिक्षा देना जिससे वह आनन्दसे दो रोटियाँ खा सके। जिस देशमे ऐसे विचार वालकोंके पिताके हो वहाँ वालक विद्योपार्जन कर परोपकार निष्णात होंगे यह असम्भव है । यहाँ पर मार्गमे जो ग्राम मिले उनमे बहुतसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ऐसे मिले जो अपने को गोलापूरव कहते हैं। हमारे प्रान्तमे गोलापूरव जैनधर्म ही पालते हैं परन्तु यहाँ सर्व गोलापूरव शिव, कृष्ण तथा रामके उपासक हैं। सभी लोगोंने सादर धर्मश्रवण किया किन्तु वर्तमानके व्यवहार इस तरह सीमित हैं कि किसीमे अन्यके साथ सहानुभूति दिखानेकी क्षमता नहीं। इसी से सम्प्रदायवादकी वृद्धि हो रही है । इस प्रान्त मे जैसवाल जैनी बहुत हैं, अन्य जातिवाले पुल कम हैं। यहाँका जलवायु बहुत ही उत्तम है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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