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________________ मुरारसे आगरा प्रशस्त है। यहां पर कई जैन मंदिर हैं, अनेक गृह जैसवाल भाइयों के हैं। सर्व ही धर्म के प्रेमी हैं। बड़े प्रेमसे सबने प्रवचन सुना यथायोग्य नियम भी लिये। पाठशालाका उत्सव हुआ। उसमें यथाशक्ति दान दिया। जैनियोंमे दान देनेकी प्रक्रिया प्रायः उत्तम है। प्रत्येक कार्यमे दान देनेका प्रचार है किन्तु व्यवस्था नहीं। यदि व्यवस्था हो जावे तो धर्मके अनेक कार्य अनायास चल सकते हैं। यहाँ प्रत्येक व्यक्तिका नेतृत्व है-सब अपनेको नेता समझते हैं और अपने अभिप्रायके अनुरूप कार्य करनेका आग्रह करते हैं। यथार्थमे मनुष्य पर्याय पानेका फल यह है कि अपनेको सत्कर्ममें लगावे । सत्कर्मसे तात्पर्य यह है कि विषयेच्छाको त्यागे । विषय लिप्साने जगत्को अन्धा बना दिया। जगत्को अपनाना-अपना समझना ही अपने पातका कारण है। जन्मका पाना उसीका सार्थक है जो शान्तिसे वीते अन्यथा पशुवत् जीवन वधबन्धनका ही कारण है। मनुष्य अपने सुखके लिये परका आघात करता है परन्तु उसका इस प्रकारका व्यवहार महान् कष्टप्रद है। संसारमे जिनको आत्महितकी कामना है उसे उचित है कि परकी समालोचना छोड़े। केवल आत्मामे जो विकार भाव उत्पन्न होते हैं उन्हे त्यागे। परके उपदेशसे कुछ लाभ नहीं और न परको उपदेश देनेसे आत्मलाभ होता है । मोहकी भ्रान्ति छोड़ो। राजाखेड़ा में तीन दिन ठहरकर आगराके लिये प्रस्थान कर दिया। बीचमें दो दिन ठहरे। जैनियोंके घर मिले। बड़े आदरसे रक्खा तथा संघके मनुष्योंको भोजन दिया, श्रद्धापूर्वक धर्मका श्रवण किया। धर्मके पिपासु जितने ग्रामीण जन होते हैं उतने नागरिक मनुष्य नहीं होते । देहातमे भोजन स्वच्छ तथा 'दुग्ध घी शुद्ध मिलता है। शाक बहुत स्वादिष्ट तथा पानी हवा सर्व ही उत्तम मिलते हैं। किन्तु शिक्षाकी त्रुटिसे वाचालताकी त्रुटि रहती
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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