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________________ १८० मेरी जीवन गाथा जाता है । देवतुल्य उसकी पूजा होती है तथा उसके वाक्य आर्पवाक्य माने जाते हैं। अथवा वह तो मनुष्य हैं उत्तम कुलके हैं किन्तु जहाँ न तो कोई उपदेष्टा है और न मनुष्योंका सद्भाव है ऐसे स्वयंभूरमण द्वीप और समुद्रमें असंख्यात तिर्यञ्च मछली मगर तथा स्थलचारी जीव व्रती होकर स्वर्गके पात्र होते हैं। तव कर्मभूमिके मनुष्य यदि व्रती होकर जैनधर्म पालें तो क्या आप रोक सकते हैं। आप हिन्दू न बनिये, यह कौन कहता है परन्तु जो हिन्दू उच्च कुलवाले हैं वे यदि मुनि वन जावें तब क्या आपत्ति है ? हिन्दू शब्दका अर्थ मेरी समझमे धर्मसे सम्बन्ध नहीं रखता । जिस प्रकार भारतका रहनेवाला भारतीय कहलाता है इसी तरह देश विशेषमे रहनेवाला हिन्दू कहलाता है। जन्मसे मनुष्य एक सदृश उत्पन्न होते हैं किन्तु जिनको जैसा सम्बन्ध मिला उसी तरह उनका परिणमन हो जाता है। भगवान् आदिनाथके समय ३ वर्ण थे, भरतने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की यह आदिपुराणसे विदित है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उन तीन वर्णोसे ही ब्राह्मण हुए। मूलमे ३ वर्ण कहाँसे आये ? विशेष ऊहापोहसे न तो आप ही अपनेको वैश्य सिद्ध कर सकते हैं और न मैं ही। क्योंकि इस विपयमें मैं तो पहलेसे ही अपने आपको अनभिज्ञ मानता हूँ। आपने लिखा कि आचार्य महाराज दयालु हैं तब क्यों वेचारोंपर दया नहीं करते। आप लोग अपनी त्रुटिको नहीं देखते। आपका जो उपकार इन शद्रोंसे होता है वह अन्यसे नहीं होता। यदि वे एक दिनके लिये भी अपनी २ सेवाएं छोड़ देवे तो पता लग जावेगा। आपने उनके साथ जो व्यवहार किया यदि उसका वर्णन किया जावे तो अश्रपात होने लगे। वे तो तुम्हारे उन कामोंको करते हैं जिनकी तुम घृणा करते हो पर तुम उसका जो प्रतिकार करते हो सो नीचे वाक्योंसे देखो । जब तुम्हारे
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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