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________________ उदासीनाश्रम और संस्कृत विद्यालयका उपक्रम १७६ प्रतिकूल विचार सुनाई दिये उन्होने कहना प्रारम्भ किया कि 'वर्णीजी हरिजनमन्दिर प्रवेशके पक्षपाती हैं। इतना ही नहीं दलविशेष और पक्ष विशेषका आश्रय लेकर अपनी स्वार्थ साधनाके लिये यद्वा तद्वा आगम प्रमाण उपस्थित करते हुए मेरे प्रति जो कुछ मनमे आया ऊटपटांग कह डाला। इससे मुझे जरा भी रोष नहीं परन्तु उन सम्भ्रान्त जनोंके निराकरण करनेके लिये कुछ लिखना आवश्यक हो गया। यद्यपि इससे मेरी न तो पक्षपाती बननेकी इच्छा है और न विरोधी किन्तु आत्माकी प्रबल प्रेरणा सदा यही रहती है कि जो मनमें हो सो वचनोंसे कहो । यदि नहीं कह सकते तो तुमने अब तक धर्मका मर्म ही नहीं समझा। 'जैनदर्शन' के सम्पादकने वणी लेख पर शूद्रोंके विषयमें बहुत कुछ लिखा है आगम प्रमाण भी दिये हैं। मैं आगमकी वातको सादर स्वीकार करता हूँ किन्तु आगमका जो अर्थ आप लगावें वही ठीक है यह आप जानें। श्री १०८ कुन्दकुन्द महाराजने तो यहाँ तक लिखा है तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज पमाणं चुफिज छलं ण घेतव्वं ।। आगममें लिखा है कि अस्पृश्य शुद्रसे स्पर्श हो जावे तो स्नान करना चाहिये । यहाँ यह जिज्ञासा है कि अस्पृश्य क्या अस्पृश्य जातिमें पैदा होनेसे हो जाता है ? यदि यह बात है तो ब्रह्मादि ३ वर्णो मे पैदा होनेसे सबको उत्तम होना चाहिये परन्तु ऐसा देखा जाता है कि यदि उत्तम जातिका निन्द्य काम करता है तो वह चाण्डाल गिना जाता है, उससे लोग घृणा करते हैं, पंक्तिभोजनमे उसे शामिल नहीं करते और वही मनुष्य जो उत्तम कुलमें पैदा हुआ यदि मुनिधर्म अंगीकार कर लेता है तो पूज्य माना
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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