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________________ अष्टाह्निका पर्व १७५ जिनके नहीं वही महामुनि हैं। वे ही शुभ अशुभ कर्मसे लिप्त नहीं होते। जिस जीवको यह निश्चय हो गया कि मैं परसे भिन्न हूँ वह कदापि परके संयोगमे प्रसन्न और विषादी नहीं हो सकता। प्रसन्नता और अप्रसन्नता मोहमूलक है। मोह ही एक ऐसा महान् शत्रु इस जीवका है कि जिसकी उपमा नहीं की जा सकती उसीके प्रभावसे चौरासी लाख योनियोंसे जीवका भ्रमण हो रहा है अतः जिन्हे यह भ्रमण इष्ट नहीं उन्हे उसका त्याग करना चाहिये। खेद करो मत प्रातमा खेद पापका मूल । खेद किये कुछ ना मिले, खेद करहु निमूल ॥ खेद पाप की जड़ है अतः हे आत्मन् ? खेद करना श्रेयस्कर नहीं किन्तु खेदके जो कारण हैं उनसे निवृत्ति पाना श्रेयस्कर है। मैं अनादि कालसे संसारमे भटक कर दुखी हो रहा हूँ ऐसा विचार कर कोई खेद करने वैठ जाय तो क्या वह दुःखसे छूट जायगा? नही दुःखसे तो तभी छूटेगा जव संसार भ्रमणके कारण मोह भावसे जुदा होगा। लोग प्रवचनोंमें आते हैं पर शास्त्रश्रवणका रस नहीं। इसका मूल कारण आगमाभ्यास नहीं किया और न उस ओर रचि ही है। लोगोंको बुद्धि न हो सो वात नहीं । सासारिक कार्योंमे तो बुद्धि इतनी प्रबल है कि वालकी भी खाल निकाल दें परन्तु इस ओर सृष्टी नहीं। कई श्रोता तो रूढ़िसे आते हैं, कई वक्ताकी परीक्षाके अर्थ आते हैं, कई वक्ताकी वाणी कुशलतासे आते हैं और कई कौतूहलसे आते हैं, अधिक भाग महिलाओंका होता है । प्रात्मकल्याणकी भावनासे कोई नहीं आता यह वात नहीं परन्तु ऐसे जीव विरले हैं। यदि यह वात न होती तो शास्त्रश्रवण करते करते
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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