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________________ मेरी जीवन गाथा फिर भी उस धर्मशालाके स्वामीने संघके लोगोंको दुग्ध दान दिया, ५ सेर चावल दाल तथा एक भेली गुड़ की दान की। साथ ही बहुत ही शिष्टाचार का वर्ताव किया। हम लोग जिस अभिप्रायवाले हैं उसीको उपयोगमे लानेका प्रयत्न करते हैं। हमने धर्मको निजकी पैतृक सम्पत्ति समझ रक्खी है। धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है। वाह्यमें आचरण ऐसा होना चाहिए जो उसमे सहायक हों। यही कारण है कि जो मानव मद्य, मांस, मधुका त्याग कर चुकता है वही चरणानुयोगमें वर्णित धर्मके पालनका अधिकारी होता है। इसका मूल हेतु यही है कि मद्यपायी मनुप्य उन्मत्त हो जाता है । उन्मत्त होनेसे उसका मन विक्षिप्त हो जाता है। जिसका मन विक्षिप्त हो गया वह धर्मको भूल जाता है । जो धर्मको भूल जाता है वह निःशङ्क हिसादि पापोंमे अनर्गल प्रवृत्ति करता है। इसी प्रकार मांसादिकी प्रवृत्तिमें भी अनर्थ परम्परा जान लेना। आजकल हम लोग उपदेश देकर जनताका सुधार करनेकी चेष्टा नहीं करते। केवल, 'यह लोग पतित हैं। इसी प्रकारकी कथा कर संतोप कर लेते हैं। और की वात जाने दो हम को ५० वर्ष हो गये, प्रतिदिन यही कथा करते करते समय बीत गया परन्तु एक भी मनुप्यको सुमार्ग पर नहीं ला सके। कहाँ तक लिखें अथवा अन्यकी कथा क्या कहूं मैं स्वयं अपनी आत्माको सुमार्ग पर नहीं ला सका। इसका अर्थ यह नहीं कि वाह्य आचरणमे त्रुटि की हो किन्तु जो अन्तरङ्गकी पवित्रता पदके योग्य है उसकी पूर्ति नहीं कर सका। तात्त्विक मर्म तो यही है कि अन्तरङ्गमें मूर्छा न हो। जब इसके ऊपर दृष्टि देते हैं तब मनमें यही आता है कि इस सांसारिक प्रशंसा को त्याग आत्मदृष्टि करो यही सत्य मार्ग है ।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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