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________________ १६४ मेरी जीवन गाथा 'निवृत्ति ही कल्याणका मार्ग है अन्ततो गत्वा यही शरण है पर पदार्थका सम्बन्ध छोड़ना ही शान्तिका मार्ग है । शान्तिका उपाय अन्य नहीं किन्तु निजत्व दृष्टि है। जिस प्रकार हमारी दृष्टि परकी ओर है उसी प्रकार यदि आत्माकी ओर हो जाय तो कल्याण सुनिश्चित है। लोग परकी चिन्तामे व्यर्थ ही काल यापन करते हैं। _ 'शान्तिका मूल मन्त्र अन्तरङ्गकी कलुषताका नाश है, कलुषताका कारण पर पदार्थोमे समता वुद्धि है, ममता वुद्धि ही संसारकी जननी है। जब पर पदार्थमें आत्मीय अंश भी नहीं तव उसमे राग करना व्यर्थ है । परन्तु यह मोही जानकरभी गर्तमे पड़ता है उसको दूर करनेका यत्न करो'। ___ 'आत्मतत्वकी यथार्थता प्रत्येक व्यक्ति में होती है परन्तु उसकी अनुभूतिसे वञ्चित रहते हैं। इसका मूल कारण हमारी अनादिकालीन परानुभूति ही है, क्योंकि ज्ञानमे स्वपर्यायका ही संवेदन होता है किन्तु मिथ्यात्वकी प्रबलतामें लोग स्वरूपसे वञ्चित हो परको ही निज मान लेते हैं। ___ १० दिन वाद जिनेन्द्रके दर्शन किये। ये दिन बहुत व्यग्रताके थे परन्तु अन्तरङ्गमें विकलता नहीं आई। बनारससे श्री सेठ वैजनाथजी सरावगी, पं. कैलाशचन्द्रजी, अधिष्ठाता हरिश्चन्द्रजी, झवेरीलालचन्द्रजी तथा फतहचन्द्रजी साहव आ गये । सबने बहुत ही आत्मीयता दिखलायी। श्री पं० कैलाशचन्द्रजीका मर्मिक प्रवचन हुआ। श्रीयुत व्र० चांदमल्लजी साहव भी उदयपुरसे आ गये आप बहुत विवेकी पुरुष हैं अपने कार्यमे सन्नद्ध रहते हैं स्वाध्यायपटु हैं प्रवचन समीचीन शैलीसे करते हैं। हमारे शरीरकी दशा देख आपने कहा कि अब आप शान्तिसे काल यापन करो व्यर्थके विकल्पोंसे अपनेको सुरक्षित रक्खो। दिल्लीसे श्री ताराचन्द्रजी तथा राजकृष्णजी भी आये। राजकृष्णजी एक कमण्डलु लाये । कमण्डलु
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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