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________________ इटावा १६३ का अंश भी नहीं । यदि विरक्तताका अंश होता तो स्वप्रतिष्ठा के भाव ही न होते । 'संसारमे सुखका उपाय निराकुल परिणति है । निराकुल परिरातिका मूल कारण अनात्मीय पदार्थोंमे आत्मीय बुद्धिका त्याग है ! उसके होते ही रागद्वेष स्वयमेव पलायमान हो जाते हैं । सबसे मुख्य पौरुप यह है कि अभिप्रायमे साधुता आ जाये। जब तक परको निज मानता है तब तक असाधुता नहीं जा सकती । जहाँ असाधुता है वहाँ राग द्वपकी सन्तति निरन्तर स्वकीय अस्तित्व स्थापित करती है ।' 'सबको प्रसन्न करने की चेष्टा अग्निमें कमल उत्पन्न करनेकी चेष्टा है | अपनी परिणति स्वच्छ रक्खो, संकोच करना अच्छा नहीं । संकोच वहीं होता है जहाँ परके रुष्ट होनेका भय रहता है परन्तु विराग दशामे परके तुष्ट या रुष्ट होनेका प्रयोजन ही क्या है ?' 'गुरुदेव से यह प्रार्थना की कि हे गुरुदेव । श्रव तो सुमार्ग पर लगाओ, आपकी उपासना करके भी यदि सुमार्ग पर न आये तो का अवसर सुमार्ग पर आनेका आवेगा ? गुरुदेवने उत्तर दिया कि अभी तुमने मेरी उपासना की ही कहाँ है ? केवल गल्पवादमे समय खोया है । हम तो निमित्त हैं, तुझे उपादान पर दृष्टि पात करना चाहिये । गुरुदेवका अर्थ आत्माकी शुद्ध परिणति है । 'किसीका सहारा लेना उत्तम नहीं, सहारा निजका ही कल्याण करनेवाला है । पञ्चास्तिकायमें श्री कुन्दकुन्द महाराजने तो यहाँ तक लिखा है कि हे आत्मान् ! यदि तू संसार बन्धनसे छूटना चाहता है तो जिनेन्द्रकी भक्तिका भी त्याग कर', क्योंकि वह भी चन्दन नगसंगत दहन की भाँति दु खका ही कारण है' । L
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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