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________________ १३८ मेरी जीवन गाथा मनुप्योंसे वार्तालाप करना उचित नहीं। धर्मके अर्थ शरीर दण्डन की आवश्यकता नहीं। शरीर न तो धर्मका कारण है और न अधर्मका। इससे उपेक्षा रखना ही श्रेयस्कर है। संसार आज नाना प्रकारके संकटोंमे जा रहा है, इसका मूल कारण परिग्रह है। सर्व पापोंका मूल कारण परिग्रह ही है । 'मूर्छा परिग्रहः'ममेदबुद्धिलक्षणम्' यही परिग्रहका स्वरूप है । संसारका कारण परिग्रह ही है। परिग्रहका अर्थ मोह-राग-द्वेष है। यही संसार है और यही दुःखका मूल कारण है। __आसौज सुदी ८ का दिन था। दरियागंजमे शान्तिसे स्वाध्याय कर रहा था कि एक प्रतिष्ठित व्यक्तिने सुनाया कि-आचार्य शान्तिसागरजीने कहा है कि यदि वर्णीका मत हरिजनके विषयमे हमारे मन्तव्यानुकूल नहीं तव वे इसमें मौन धारण करें। यदि कुछ बोलेंगे तब उनके हक्कमे अच्छा न होगा अर्थात् उनको जैन दिगम्बर मतानुयायी अपने सम्प्रदायवलसे पृथक् कर देवेंगे'। इसका तात्पर्य यह है कि दिगम्बर जैन उन्हे आदरकी दृष्टिसे न देखेंगे। मैंने यह विचार किया कि मनुष्योंकी दृष्टिसे कुछ कल्याण तो होता नहीं और न मनुष्योंकी दृष्टिमें आदर पानके लिये मैंने वीतराग जिनेन्द्रका धर्म स्वीकार किया है। मेरा तो विश्वास है कि जैनधर्म किसीकी पैतृक सम्पत्ति नहीं तब धर्म साधनके जो अङ्ग हैं वे क्यों सर्वसाधारणके लिये उपयोगमे आनेसे रोके जाते हैं ? कल्पना करो, कोई हरिजन जैनधर्मका श्रद्धालु बन गया तब उसे क्या ये लोग श्रावकके अनुकूल क्रिया नहीं करने देंगे? चदि नहीं करने देंगे तो निश्चय ही उन्होंने उसे धर्मसे वशित किया यह समझना चाहिये। धर्म तो श्रात्मा की परिणति है, उसे कोई रोक नहीं सकता। एक दो नहीं सब मिलकर
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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