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________________ ! : दिल्लीके शेष दिन १३७ ओर जाना अति कठिन है । धन्य है उन महापुरुषोंको जिनकी प्रवृत्ति निर्दोष रहती है । चित्तवृत्ति निरन्तर कलुषित रहे यह महान् पापका उदय है । जब परिग्रहका सम्वन्ध नहीं तत्र कलुषित होनेका कोई कारण ही नहीं । वास्तवमें देखा जावे तो हमने परिग्रह त्यागा ही नहीं । जिसको त्यागा है वह तो परिग्रह ही नहीं । वे तो पर पदार्थ है, उनको त्यागना ही भूल है, क्यों कि उनका आत्मासे सम्बन्ध ही नहीं । आत्मा तो दर्शन -ज्ञान- चारित्रका पिण्ड है । उसमें मोहके विपाकसे कलुषितता आती है जो कि चारित्रगुणकी विपरिणति --- विरुद्ध परिणति है उसे ही त्यागना चाहिये । उसका त्याग यही है कि वह होवे इसका विषाद मत करो तथा उसमें निजत्व कल्पना न करो । चित्तमे न जाने कितने विकल्प आते हैं जिनका कोई भी प्रयोजन नहीं । प्रत्येक मनुष्य के यह भाव होते हैं कि लोकमे मेरी प्रतिष्ठा हो । यद्यपि इससे कोई लाभ नहीं फिर भी न जाने लोकैषणा क्यों होती है ? सर्व विद्वान् निरन्तर यह घोषणा करते हैं कि संसार असार है । इसमे एक दिन मृत्युका पात्र होना पड़ेगा । पर प्रसारका कुछ अर्थ ही समझमें नहीं आता । मृत्यु होगी इसमे क्या विशेषता है ? इससे वीतराग तत्त्वको क्या सहायता मिलती है, कुछ ध्यानमे नहीं आता। मुझे तो लगने लगा है कि बहुत बोलना जिस प्रकार आत्मशक्तिको दुर्बल करनेका कारण है उसी प्रकार बहुत सुनना भी आत्मशक्ति के ह्रासका कारण है । आगमाभ्यास भी उतना सुखद है जितना आत्मा धारण कर सके । बहुत अभ्यास यदि धारणासे रिक्त है तो जैसे उदराग्नि के बिना गरिष्ठ भोजन लाभदायक नहीं वैसे ही वेद अभ्यास भी लाभ दायक नहीं प्रत्युत हानिकारक है । यद्वा तद्वा
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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