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________________ १२२ मेरी जीवन गाथा है । एक क्षेत्र में ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ये पदव्य स्वकीय स्वकीय सत्ता लिये निवास कर रहे हैं। उनमे जीव और पुद्गलको छोड़कर चार द्रव्य तो अपने अपने स्वभावमें लीन हैं । उनमे कोई प्रकारकी विकृति नहीं आती। २ द्रव्य-जीव और पुद्गल इनमे विभाव नामक शक्ति है, इससे उनका परस्परमे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हो रहा है। जीवके रागादिक परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गलमे ज्ञानावरणादिरूप परिणाम होता है और कर्मके उदयको पाकर जीवमे रागादि परिणाम होते हैं। उन रागादिकके द्वारा जीव नाना प्रकारके कार्य करता है ? जो पदार्थ अपने अनुकूल होते हैं उन्हे इष्ट मान लेता है और जो प्रतिकूल होते है उन्हे अनिष्ट मानता है। यदि इष्ट पदार्थ मिले तो उनके साधको से राग और अनिष्ट पदार्थ मिले तो उनके साधकोंसे द्वेष करने लगता है । इस प्रकार निरन्तर राग-द्वेषकी कल्पनासे मुक्त नहीं होता और मुक्त होनेका कारण जो उपेक्षाभाव (रागद्वेप रहित परिणाम) है उस ओर इस जीवकी दृष्टि नहीं । उपयोग आत्माका एक कालम एक ही होता है। इस प्रकार हम तो अपना भाव प्रकट कर दिया। यद्यपि यह निश्चय है कि जो होना है वही होगा। संसारकी दशाको बदलनेकी किसीमे सामर्थ्य नहीं। परन्तु अभिप्रायके विरुद्ध वात कहना और करना दम्भ है, इसलिये यह लिखकर मैं निर्द्वन्द्व हो गया।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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