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________________ मेरी जीवन गाथा तो उसे स्त्री पीली पीली दिखी। उसने उसे भगा दिया। कहा कि मेरी स्त्री तो काली थी तू यहाँ कहाँसे आई ? वह कामला रोग होनेसे अपनी ही स्त्रीको पराई समझने लगा। इसी प्रकार मोहके उदयमे यह जीव कभी कभी अपनी चीजको पराई समझने लगता है और कभी कभी पराईको अपनी । यही विभ्रम संसारका कारण है, इस'लिये ऐसा प्रयत्न करो कि जिससे पापका पाप यह मोह आत्मासे निकल जाय । हिंसादिक पाँच पाप हैं अवश्य पर ये मोहके समान अहितकर नहीं हैं। पापका बाप यही मोह कम है। यही दुनियाको नाच नचाता है। मोह दूर हो जाय और आत्माके परिणाम निर्मल हो जाँय तो संसारसे आज छुट्टी मिल जाय। पर हो तब न । संस्कार तो अनादि कालसे इस जातिके वना रक्खे हैं कि जिससे उसका छूटना कठिन दिखने लगता है। ज्ञानके भीतर जो अनेक विकल्प उठते हैं उसका कारण मोह ही है। किसी व्यक्तिको आपने देखा, यदि आपके हृदयम उसके प्रति मोह नहीं है तो कुछ भी विकल्प उठनेका नहीं। आपको उसका ज्ञान भर हो जायगा । पर जिसके हृदयमे उसके प्रति मोह है उसके हृदयमे अनेक विकल्प उठते हैं-यह विद्वान है, यह अमुक कार्य करता है, इसने अभी भोजन किया है या नहीं ? आदि । विना मोहके कौन पूछने चला कि इसने अभी साया है या नहीं ? मोहके निमित्तसे ही आत्मामे एक पदार्थको जानकर दसरा पदार्थ जाननेकी इच्छा होती है । जिसके माह निकल जाता है उसे एक श्रात्मा ही यात्माका बोध होने लगता है। उसकी दृष्टि बाह्य नेयकी ओर जाती नहीं है। ऐसी दशाम श्रात्मा आत्माके द्वारा यात्माके लिये आत्मासे यात्मामें ही जानन लगता है । एक यात्मा ही पटकारक रूप हो जाता है। सीवी बात यह । कि उसके सामनेसे कता, कर्म, करगणादिका विकल्प हट जाना।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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