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________________ दिल्लीका परिकर १०६ निजका अंश है। वही उपादेय है। उसीमे स्थिर हो जाना मोक्ष है। प्रजाके द्वारा जिसका ग्रहण होता है वही चैतन्य रूप 'मैं' हूँ। इसके शिवाय अन्य जितने भाव हैं निश्चयसे वे पर द्रव्य हैं-पर पदार्थ हैं। प्रनाके द्वारा जाना जाता है कि आत्मा ज्ञाता है, दृष्टा है। वास्तवमै ज्ञाता दृष्ट होना ही आत्माका स्वभाव है पर इसके साथ जो मोहकी पुट लग जाती है वही समस्त दुखोका मूल है। अन्य कर्मके उदयसे तो आत्माका गुण रुक जाता है पर मोहका उदय इसे विपरीत परिणमा देता है। अभी केवलज्ञानावरणका उदय है। उसके फल स्वरूप केवलज्ञान प्रकट नहीं हो रहा है, परन्तु मिथ्यात्वके उदयसे आत्माका आस्तिक्य गुण अन्यथा रूप परिणम रहा है । आत्माका गुण रुक जाय इसमे हानि नहीं पर मिथ्यारूप हो जानेमे महती हानि है। एक आदमीको पश्चिमकी ओर जाना था, कुछ दूर चलने पर उसे दिशा भ्रान्ति हो गई। वह पूर्वको पश्चिम समझ कर चलता जा रहा है, उसके चलनेमे बाधा नहीं आई पर ज्यों ज्यों चलता जाता है त्यों त्यों अपने लक्ष्यसे दूर होता जाता है। दूसरे आदमीको दिशा भ्रान्ति तो नहीं हुई पर पैरमे लकवा मार गया इससे चलते नहीं बनता। वह अचल होकर एक स्थान पर बैठा रहता है पर अपने लक्ष्यका वोध होनेसे वह उससे दूर तो नहीं हुआ, कालान्तरमे ठीक होनेसे शीघ्र ही ठिकानेपर पहुँच जावेगा। ___ एकको आँखमे कमला रोग हो गया जिससे उसका देखना बन्द तो नहीं हुआ, देखता है, पर सभी वस्तुएं पीली पीली दिखती हैं। उससे वर्णका वास्तविक बोध नहीं हो पाता। एक आदमी परदेश गया। वहाँ उसे कामला रोग हो गयो। घरपर स्त्री थी, उसका रङ्ग काला था। जब वह परदेशसे लौटा और घर आया
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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