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चाणक्यसूत्राणि
शहरी लोग ही इनके नेता होते हैं । इनका परिणाम यह हुआ है कि ग्रामोंसे प्राप्त करोंले नगर पाले और बढाये जाते हैं । नगरवालोंके प्रभुतालोभका ही परिणाम आजके द्विखंडित भारतको भोगना पड रहा है । आर्य चाण क्यको नीतिको जो सर्वमान्यता मिली है वह समाजकी राजशक्तिको प्रभुतालोमी हाथमें न रहने देनेकी शिक्षा प्रचलित करना चाहने से ही मिली है | चाणक्य प्रभुतालोभियोंका प्रबल शत्रु था । इसी कारण उसने पर्वतकको नष्ट किया और चन्द्रगुप्त को राज्याधिकार सौंपा। राजशक्तिका नगरहितैषी न होकर समाजहितैषी होना अनिवार्य रूपले आवश्यक है । राजशक्तिके समाजहितैषी होनेपर ही समाजकी शान्तिकी सुरक्षितताका आश्वासन मिल सकता है ।
यदि राजशक्ति समाजहितका ध्यान न रखकर प्रजाके धनका नगरसंवर्धन में अपव्यय करती है तो वह समाजके सिरपर चढ बैठा हुआ एक अपसारणीय बोझ बन जाती है । इस प्रकारकी नगरपक्षपातिनी राजशक्ति समाजकी शान्तिको सुरक्षित नहीं रख सकती सब मानते हैं कि राज• शक्तिको समाजसेविका बनकर रहना चाहिये। जो राजशक्ति समाज तथा उसकी धनशक्तिको अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा और बाह्याडंबर ( दिखावा ) पूरा करनेके काम में लाने लगती है, उसका सर्वभक्षी पेट सुरसाके पेटके समान बढ़ता चला जाता है । वह भस्मक रोगी के समान राष्ट्रके समस्त खाद्यांशको स्वयं खाकर राष्ट्रको भूखा, नंगा, निर्बल बनाये रखती है । इस रूप में वह समाजकी शत्रु होती है । समाजको बाह्य तथा आभ्यन्तरिक दोनों प्रकार के शत्रुओंसे सुरक्षित रखना राजशक्तिका महान् उत्तरदायित्व है ।
जो राजशक्ति राष्ट्रको दोनों प्रकारके शत्रुओंसे सुरक्षित रखनेका उत्तरदायित्व पूरा नहीं करती, वह निश्चय ही राजशक्ति बने रहने योग्य नहीं है । ऐसी कर्तव्यहीन राजशक्तिके सिर पर आत्मसुधारका कर्तव्य लाद देना चाहिये । परन्तु ऐसा करना समाजके अतिरिक्त अन्य किसीका भी कर्तव्य नहीं है। राजशक्ति पर आत्मसुधारका कर्तव्य लादना जटिल कर्तव्य है ।