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________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- सन्धि विग्रहों का व्यवहार पडौसी राष्ट्रोंके ही साथ होता है। सन्धिविग्रहके क्षेत्र राष्ट्र मण्डल कहाते हैं । सन्धिका अर्थ सन्धान तथा विग्रहका अर्थ विरुद्ध कर्म करना या विरोधीकर्म अपनाना है। धनदानादि उपायोंके द्वारा प्रेमका सम्बन्ध जोडना या मित्र बनाना सन्धि है। राजा लोग कुछ पदार्थ ले देकर आपसमें प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं। यह सन्धि कहाती है । उसीको पण भी कहते है । पणसे होनेवाली सन्धि पणबन्ध कहाती है। सोमदेवके शब्दोंमें “पणबन्धः सन्धिः । अपराधो विग्रहः "। जब कोई किसी राजाका अपराध करता है, तब ही विग्रह खडा होता है। दूसरे राष्ट्रमें दाह लूट मार मादि भी विग्रहके ही रूप हैं। सन्धि और विग्रहोंके बहुतसे रूप हैं । प्रकटविग्रह, कूटविग्रह, मौनविग्रह भेदसे विग्रहके भी तीन भेद बताये जाते हैं। कोई दुर्बल राजा बली राज्यको पणदानसे जबतकके लिये सन्तुष्ट करता है तबतक उन दोनोंकी सन्धि रहती है। पडौसी राष्ट्र के साथ समयकी भावश्यकता तथा पडौसी राष्ट्रोंके बर्तावके अनुसार सन्धि विग्रह करते रहना राज्यव्यवस्थाका राष्ट्रीय कर्तव्य होता है । किसीसे न तो सदा सन्धि रह सकती है और न सदा किसीसे विग्रह ही रहता है। किस समय कौनसी नीतिकी आवश्यकता है यह देखते रहना ही नीतिमत्ता पाठान्तर- सन्धिविग्रहयो>निर्मण्डलम्। सन्धिविग्रहोंके कारण बनते रहनेवाले पडोसी राष्ट्र मण्डल कहाते हैं। (राजा) नीतिशास्त्रानुगो राजा ॥८॥. नीतिशास्त्रका अनुगामी होना राजाकी योग्यता है । विवरण- हेतुशास्त्र, दण्डनीति, तथा अर्थशास्त्र नीतिशब्दसे कहे जाते हैं । शासनव्यवस्थासे सम्बन्ध रखनेवालेको इन सब राजशास्त्रोंका सूक्ष्म ज्ञान होना चाहिये । यदि राज्याधिकारी लोग राजशास्त्रसे परिचित
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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