SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 647
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२० चाणक्यसूत्राणि माजका पाश्चात्यप्रभावित भारत पाश्चास्योंके सर्वक्षेत्रीय अन्धानुकरणमें ही अपना महोभाग्य मान रहा है। अनुकरण करनेवाला अपने अनुकर्तव्यका दास होता है। अपने अनुकर्तव्यका दास बन जाना हो दासताकी सर्व मान्य परिभाषा है । मनुष्यताको पददलित करनेकी प्रवृत्ति ही दास मनो. वृत्ति है । दास मनोवृत्ति ही देशद्रोह है। भारतवर्ष में जो दास मनोवृत्ति घर कर गई है यही तो भारतवासिका देशद्रोह है। पाश्चात्योंका अन्धानुकरण ही भारतवासिका देशद्रोह है । अंधा भारतवासी अपनी इस पाश्रा. स्यानुकरणी मनोवृत्तिको देशद्रोह न समझकर प्रत्युत उसीमें अपना सौभाग्य मानकर अपना कितना भकल्याण कर रहा है ? यह न समझकर इस पत. नको भी स्थान मान रहा है । यह कितने पारितापका विषय है कि भाजके भारतको अपना संविधान बनाने के लिये संस्कृति और परम्परामें से कोई ग्राह्य तत्व हाथ नही माया । जब कि पाश्चात्य जगत् के विचारशील विद्वान् चाणक्यकी राजकल्पना तथा परिननिर्माणके सिद्धान्तोंको अत्यन्त सम्मानकी दृष्टि से देखते हैं। आज चाणक्य हम लोगोंकी अज्ञानजन्य अकृतज्ञ. तास भारतमें न पूजकर विदेशी विद्वानों में पूज रहा है। भाजका भारत मनुष्यतासे हीन होकर योरोप, अमेरिकावाली उन्नतिका चरमोत्कर्ष पानेके उभयभ्रष्ट बनाने वाले सुपने देख रहा है । भाजके पाश्चात्यानुगामी भारतको यह कैसे समझाया जाय कि मनु. ध्यता ही किसी भी राष्टका प्राण या जीवनी शक्ति होती है। मनुष्यताके अभावमें समस्त भौतिक संपत्तिये मुरदेका श्रृंगार बन जाती हैं। मनुष्यतासे हीन होकर भौतिक उन्नति, राष्ट्रसेवा, विश्वशान्ति, समाजसेवा आदि नामोसे देशके मानवसमाजको ठगा ही ठगा जाता है। सेवा तो मनकी होती है । मनको शान्ति पानेकी कला न सिखाकर कुछ उज्ज्वलवेषी लोगोंका गन्दे मोहल्लों में जाकर कुछ समय झाडू लगानेका अभिनय मात्र करके दीन लोगोंसे ताली पिटवाले या जयघोष करवा लेना मात्र राष्ट्रको समतिका मार्ग दिखानेवाली सेवा नहीं है । राष्ट्रके मनका भज्ञानपनसे उद्धार करमा ही सेवा है। लोगोंके दुःखदायी अज्ञानको मिटाकर उन्हें स्वाभिमानी
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy