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________________ चाणक्यसूत्राणि उन स्वार्थी मित्रोंकी कसोटी बनजाती और उनके मित्रताके ढोंगका भंडाफोड कर देती है । ३६ ऊपरवाले वचनों में मित्रके लक्षणोंका उल्लेख हुआ है । परन्तु भाजके संसार में मित्रोंके जो व्यवहार देखनेमें आते हैं वे सब इन लक्षणोंकी कसौटीपर खरे नहीं उतरते | वे मैत्रीके नामपर सम्मानित होनेके स्थानपर वैरके नामसे निन्दित होने योग्य दिखाई देते हैं। संसार में राष्ट्रों के साथ राष्ट्रोंकी, पार्टियों के साथ पार्टियोंकी तथा व्यक्तियोंके साथ व्यक्तियोंकी ऐसी ही धूर्ततापूर्ण मैत्री देखने में भाती है। इन सब मित्रताओं में स्वार्थमोह, स्वभा वजमोह, या रूपज मोद्दोंमें से कोई एक बन्धन अवश्य रहता है । ये बन्धन कुछ सीमातक चलते हैं । इन मित्रताओंका कारण भौतिक सीमातक सीमित रहता है । जो स्वार्थ राष्ट्रों दलों या व्यक्तियों को दलबद्ध करता है, उस स्वार्थकी संभावनाका अन्त होते ही मित्रताका बन्धन टूट जाता है । रूपज मोहवाला बन्धन भी अपनी सीमातक रहता है । वह भी उस सीमाको पार करते ही टूट जाता है । इसके विपरीत सच्ची मित्रताके बन्धनों का कभी न टूट पानेवाला स्थायी बन्धन होना अनिवार्य होता है । सत्यनिष्ठकी सच्ची मित्रताका बंधन सत्यका ही बंधन होता है इसलिए वही बंधन अटूट और स्थायी होता है । सत्यनिष्ठ मित्र अपने सत्यनिष्ट मित्रकी सेवामें सत्यकी ही सेवा और सत्य के विरोध के जिस अनुपम अमृतका आस्वादन करते हैं उसे वे समग्र संसारके विनिमय में भी त्यागनेको उद्यत नहीं हो सकते । स्थायी मित्रताके अटूट बन्धनका रूप गीताके निम्न श्लोक में स्पष्ट हैउद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः ॥ गीता बाह्यमित्रताओं के धोकेमें आजानेवाले लोगों को सावधान कर देना चाहती है कि मनुष्य के शत्रु मित्र बहिर्जगत् में नहीं है । मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु या मित्र है । मन ही मनुष्यका स्वरूप है । सत्यनिष्ठ उचित व्यवहारी मन स्वयं ही अपना मित्र है । उसके विपरीत पापनिष्ठ मन स्वयं
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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