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________________ आर्थिक समाजरचनाके दाप ५९३ रक्षा राजाका ही उत्तरदायित्व है। न्यायपूर्वक प्रजाकी रक्षा ही राजधर्म है । उनकी दृष्टि में विधाताने जो मानव सृष्टि बनाई है वह नैतिक मादर्शकी रक्षा ही के लिये बनाई है । आजके संसारने जो आदर्श अपना रक्खा है उसे तो पशुओंने भी अपना रक्खा है। इसे अपनाने में मानवकी कोई विशेषता नहीं है । इसे अपनानेसे तो उसकी पशुता ही विकसित हुई है। इसमें उसकी मानवताके विकसित होने की कोई संभावना नहीं है । चाणक्यकी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि संसारकी राजसंस्थाने मानवताको फूलनेफलने देनेवाले इसी प्राकृतिक नियमके आधारपर प्रतिष्ठित हों। चाणक्य वर्णाश्रम धर्मके प्रबल समर्थक थे । वे देशकी राजनीतिको वर्णाश्रमधर्मके अनुकूल बनाये रखने में ही समाजका कल्याण समझते थे। उनका विश्वास था कि मनुष्य का राजनैतिक जीवन उसके नैतिक जीवनसे भिन्न नहीं होना चाहिये । उनके अनुसार राजनैतिक जीवन तथा नैतिक जीवनमें सुदृढ एकता होनी चाहिये। वे मानते थे कि राजसंस्था समाजको शृंखलामें तब ही रख सकती है जब वह अपने व्यवहारमें भी नैतिकताके भादर्शको अक्षुण्ण रखे । इस दृष्टि से राजनीतिको मानवधर्मसे अलग रखना माचार्य कौटल्यके सिद्धान्त के विरुद्ध था । उनका विश्वास था 'धर्माय राजा भवति न कामकरणाय ' त राजा इसलिये राजा नहीं बना कि राज्यैश्वर्य पाकर कामभोगोंमें फंस जाय । वह तो स्वयं धर्म करने तथा राष्ट्र में धर्मकी स्थापना करने के लिये राजा बना है । चाणक्यका राजा उत्तरदायित्वहीन स्वेच्छाचारी राजा नहीं है। चाण. क्यके राजाका तो दुगना उत्तरदायित्व है। वह प्रजाको धर्मच्युत न होने देने के लिये भी समाजके सामने उत्तरदायी है और स्वयं भी धर्मरत रहनेके लिये समाजके सामने उत्तरदायी है। न्याय ही प्रजा या सम्पूर्ण राष्ट्रमें शृंखला बनाये रखनेवाला धर्मबन्धन है । व्यक्ति समाजसे अलग अपना अस्तित्व नहीं रखता। व्यक्तिका कल्याण भी समाजके कल्याणसे अलग कोई वस्तु नहीं है । चाणक्य के निर्देशानुसार जीवन बितानेका इच्छुक व्यक्ति ३८ ( चाणक्य.)
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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