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________________ ५३८ चाणक्यसूत्राणि मज्ञानमें से किसी एकके निर्वाचनको समस्याके उपस्थित हो जानेपर ज्ञानको ही अपने जीवनका मार्गदर्शक बगा लेता है । वह सत्यार्थ कर्तव्य पालनको ही अपने जीवनका ध्येय बना लेता है। उसका शरीर सत्यकी सेवामें सम. र्पित होचुका होता है। उसका शरीर सत्यकी सेवामें समर्पित होकर जीवन व्यापी तपश्चर्या का साधन बन जाता है। भोग-निवृत्ति ही मनुष्यका तपो. मय जीवन है। जीवन भर कामक्रोधादि आभ्यंतर रिपोंका दमन करते रहना ही सच्ची तपस्या है । मनपर इन्द्रियों की प्रभुता न होने देकर इन्द्रियों के ऊपर विवेकी मनकी प्रभुताकी स्थापना ही मनुष्यकी जितेन्द्रियता है और यही उसकी इन्द्रियदमन नामकी तपस्या भी है । यही वह तपस्या है जिससे मनुष्यको स्वर्ग अर्थात् सच्चा सुख मिलता है। ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं, तपः क्षत्रस्य रक्षणम् । वेश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रम्य सेवनम् ॥ ज्ञान ही ब्राह्मणों की तपस्या है । अत्याचार पीडितों की रक्षा ही क्षत्रियकी तपस्या है। धर्मानुकूल व्यापारसे अपनी तथा राष्ट्रकी श्री-वृद्धि ही वैश्यकी तपस्या है । मधई। तपस्या सबको योग देना ही शूद्रोंकी तपस्या है । यद्दस्तर यद्दराप यद्दर्ग यच्च दुष्करम् । सर्व तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ संसार में जो कुछ दुस्तर, दुराप, दुर्ग और दुष्कर है वह सब तपसे संभव है । तप अनभिभवनीय, भनतिक्रमणीय, मनिषेध्य, समोध स्थिति है । अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमोऽघृणा । एतत्तपो विदु/रा न शरीरस्य शोषणम् ॥ अहिंसा, सत्य, भानृशंस्थ, दम, मघृणा मादि तपस्याके रूप हैं । शरीर. परिशोषण तपस्या नहीं है । गीतामें तपके तीन भेद
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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