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________________ निन्दित आहार ५२९ वानस्पतिक खाद्यसंग्रह करने में हत्या जैसे अस्वाभाविक कर घिनौने घृण्य (घिनौने ) उपायोंका अवलम्बन करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके विपरीत प्राणिज माहार प्राप्त करने में अपने भोज्य प्राणीका प्राणहरण करना पड़ता है। प्राणहरणके लिये हृदयविदारक अस्वाभाविक उपायोका अवलम्बन करना पडता है। इस कारण प्राणिज आहार प्राप्त करना मानव. स्वभावके विपरीत स्थिति है। प्राणिज माहार मानवके दयालु स्वभावकी हत्या किये बिना प्राप्त ही नहीं हो सकता । जीवितं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यदयदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्ययेत् ॥ जो मनुष्य स्वयं जीना चाहे वह किसी दूसरे को कैसे मारे १ वह अपनी अनुभूतिको सबमें फैलाकर क्यों न देखे ? मनुष्य जो अपने लिये चाहे वह दूसरेके लिये भी सोचे। स्वच्छन्दवनजातेन शाकेनापि प्रपूर्यते । अस्य दग्धोदरस्याथै कः कुर्यात् पातकं महत् ॥ मनुष्य का जो क्षुद्र पेट वनमें स्वच्छन्द उपजे साग-पातसे भी भर जाता है, उसके लिये कौन बुद्धिमान् दूसरे प्राणियों के प्राणहरणका पाप मोल ले । वानस्पतिक भोजनकी स्वास्थ्यप्रदता स्पष्ट देखी जा सकती है । प्राणीके शरीरोंके रोग आँखोंसे देखनेसे नहीं जाने जा सकते । ऐसी अवस्थामें प्राणिक माहार करनेसे रोगी प्राणीके रोगों को भी अपने दरमें जाने देना और पाकस्थलीको रोगग्रस्त बना डालना बुद्धिमत्ता नहीं है। इस प्रकार स्वास्थ्य तथा रुचि दोनों ही दृष्टियोसे जरायुज तथा अण्डज भोजन बान. स्पतिक भोजनोंसे निकृष्ट है। यदि मनुष्य प्राणिज भोजन त्याग देगा तो वह क्षतिग्रस्त न होकर लाभवान् रहेगा। आमिष भोजन रोगकारक मायुनाशक तथा उपद्रवकारी है । निरामिष भोजन नैरोग्यकारी मायुवर्धक तथा निरुपद्रव भोजन है। ३४ (चाणक्य.)
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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