SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्पुषका लक्षण ५२७ उत्तरदायित्व समर्पित रहता है । वे लोग अपने अक्कांत परिश्रमसे समाजको भासुरिक प्रभावसे मुक्त करनेवाले होते हैं । असुर विनाशिका सच्ची शक्तिको जाग्रत करनेवाली लोकशिक्षाको प्रबन्ध इन्हीं लोगोंकी भोरसे चालू रहकर भावी सन्तानको ज्ञानालोक देकर नवीन राष्ट्रका निर्माण किया करता है। मूढ लोग सम्मानाई लोगों का सर्वत्र निरादर करते हैं । मूढोंकी मूढताका यही स्वरूप है कि वे आसपास में अपने जैसे मूढोंको ही देखना चाहते हैं। वे अपने आसपासमें अपने जैसे मूढोंको देखकर यह यात्मसंतोष कमा लेना चाहते हैं कि यह संसार मूढोका ही स्थान है। जैसे उलकको प्रकाश स्वरूप सूर्यका देखना सहन नहीं होता, इसी प्रकार मूढों को अपने से आधिक योग्य व्यक्ति सहन नहीं होता । वे अपनी इस मनोवृत्ति से समाजके बुद्धि . मान सदस्योंको अपमानित करके अपनेको ही समाजके श्रेष्ठासनका अधि. कारी प्रमाणित करनेकी सृष्टता करके झूठा मास्मसंतोष पा लेना चाहते हैं। वे नहीं समझते कि समाजके योग्य लोगोंका सम्मान करना तो अपने ही को योग्य प्रमाणित करना होता है। गुणी लोग ही गुणग्राही होते हैं । निर्गुण, अधम लोग गणों का निरादर करके ही तो अपनी अधमताको प्रकट करते हैं। साधुपुरुष अपने शरीरको अपने समाजकी सेवाके काममें मानेके लिये मिला हुआ सेवोपकरण मानते हैं । साधु लोग अपने देहको भी अपना न मानकर उसे सत्यको सेवाका साधन मानते हैं। और समाज के अन्य व्यक्तियोकी मनुष्यताको अपनी मनुष्यता जैसा ही सेन्य मानते हैं। मनुष्यसमाजके प्रत्येक व्यक्तिकी कल्याणकामना करनेवाला सत्यनिष्ठ साधुपुरुष सत्यकी सेवामें आत्मसमर्पण करके रहता है और अपने देहको सम्पूर्ण मनुष्यसमाजके अधिकारमें सौंप देता है। वह अपने देदको अपने समाजकी पुनीत धरोहरके रूपमें देखता है। सर्वभूतात्मदर्शी सबके साथ ईश्वरबुद्धिसे व्यवहार तथा सर्वत्र ईश्वरबुद्धिसे विहरण करनेवाला ज्ञानसम्पल मनुष्य अपने समाजके साथ अपने
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy