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________________ चाणक्यसूत्राणि अपनी चोरी छिपाये फिरनेवाले लोग भी अप्रत्यक्ष चोरोंकी श्रेणी में आते हैं । प्रत्यक्ष चोर तो देखता है कि मैं दण्डविधान के अधीन हूँ इसलिये वह तो दण्ड से बचकर चोरी करता है । परन्तु किसीकी प्रत्यक्ष चोरी न करनेवाले अप्रत्यक्ष चोर व्यवहार-विनिमय के नामसे व्यापार-लेन--लेन-देन आदि सम्पर्कौमें आकर लोगोंसे अनुचित अर्थशोषणका अवसर पा जाते या लोगों की सेवा के नामसे उनसे अवैध अर्थ-संग्रह करते रहते हैं । ये सब लोग राष्ट्रके भयंकर चोर हैं। शत्रुराष्ट्रको देशका भेद देनेवाले स्वराष्ट्रद्रोही तथा पर राष्ट्रप्रेमी लोग राष्ट्रकण्टक कहाते हैं । I ५०४ इन किसीको भी देशकी हानि न करने देना राज्यसंस्थाका गंभीर उत्तरदायित्व है । 'स्वधर्मानुष्ठानादेव सुखमवाप्यते स्वर्गमाप्नोति । 3 " राजा लोग राष्ट्र-रक्षा नामक स्वधर्मको पा लें तो वर्तमान तथा भविष्यत् दोनों कालों में सुख पा सकते हैं । ( धर्मका लक्षण ) अहिंसालक्षणो धर्मः ॥ ५६१ ॥ धर्मका लक्षण अहिंसा है } विवरण - अहिंसा शारीरिक व्यापार नहीं है। अहिंसा तो मानस व्यापार है । अपने मनको काम, क्रोध आदि मानसिक दोषों, निर्बलताओं या हिंसालोंके आक्रमणसे सुरक्षित रखनारूपी अहिंसा ही मनुष्यका स्वधर्म हैं और यही उसकी सत्यनिष्ठा भी है। परपीडन ही अहिंसाको परिभाषा है । जो दूसरेका पीडन करके आत्मसुख चाहता है वह सुखको ही नहीं समझता । वह मूढ अपने सुखको समाजके सुखका विरोधी बना लेता है । समाजकी सुख-शान्तिकी आधारशिला तो मनुष्यताका सुरक्षित रहना ही है । जो समाजको दुःखी करके सुख चाहता है वह अपनी मनुष्यताका हनन
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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