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________________ पाप पापीसे स्वीकार करना अथवा- पापीके पापाचरणसे माहत समाज उस पापीपर कठोर दण्ड या प्रलोभनका दबाव देकर उसीके मुख से पाप स्वीकार करा ले और उसके पापके सम्बन्धमें उचित प्रमाण संग्रह करके उसे दण्ड देनेको उद्यत हो जाय तो वह पापी अपने पापको अपने आप प्रकाशित कर देता है। इस सूत्रका अभिप्राय यही है कि पापी हृदय कभी भी रन नहीं होता। पापी मनुष्य स्वभावसे चंचलचित्त होता है। छिपाकर पाप करने पर भी उसकी स्वाभाविक चंचलचित्तता स्वयं ही उसके पापकर्मको प्रकाशमें लाने का साधन बनायी जा सकती है। पापीपर मावश्यक कठोरता करके तथा प्रलोभन आदि उपायों को काममें लाकर उसीके मुखसे अपराध स्वीकार कराया जा सकता और उसीके मुख से अपराधसाधक प्रमाणों की सूची लेकर उनका संग्रह करके उसे दण्ड दिया जा सकता है। यदि कोई राज्य-व्यवस्था चंचल चित्त पापीको, दण्डित न कर सके तो यह उप राज्य-व्यवस्थाका अक्षम्य अपराध है। इसका अर्थ यह होगा कि समाजभरके अनुमोदनसे बनी हुई राजशक्ति चंचलचित्त एक-दो पापियोंसे भी न्यून शक्ति रखती है। जो राजशक्ति इतनी कर्तव्यहीनतारूपी न्यूनता दिखाने में न लजाती हो उसे तत्काल पदच्युत कर देने में ही समाजका कल्याण है। क्योंकि समाज अपने साधु-असाधु व्यक्तियों से स्वयं परिचित रहता है, इसलिये किसी भी अपराधीका चालचलन समाजको अज्ञात नहीं रहता। पापी अपने पापको अपने स्वभाव तथा आचरणके द्वारा ही प्रकाशित किया करता है। ऐसे पापीको दण्डित न कर पाना समाजका और उसकी राजशक्तिका अंधापन है। पापीका अपराधी हृदय अपना पाप छिपानेका जो अनुचित भाग्रह रखता है उसके कारण वह अस्वाभाविक माचरण करने लगता है। उसके वे अस्वाभाविक माचरण दण्डाधिकारियोंके सामने उसके पापका भंडाफोड कर देते हैं। पापीका अपराधी हृदय अपने पाप छिपानेका आग्रह किया
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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