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________________ शत्रुके प्रति बुद्धिमानका दृष्टिकोण तो क्रियात्मक या सदाचारात्मक धर्म है। आर्य लोग समस्त विश्वको अपनी मानवताके संरक्षक क्षेत्र विराट् परिवार के रूप में देखते और उसकी सेवाको अपना भादर्श या धर्म स्वीकार करके उसे पालते रहते हैं। अनार्य लोग अपने कुविश्वासोको ही धर्मान्धताके रूप में अपनाये रहकर अपने क्षुव,मासुर, पारिवारिक या साम्प्रदायिक स्वार्थ-साधनको ही जीवन का ध्येय बनाकर अपने सम्प्रदायसे ससम्बद्ध मनुष्यसमाज की मनुष्यताकी निर्मम हत्या कर नेको स्वधर्मप्रचार या सम्प्रदाय विस्तार समझते हैं । इश्वरक पवित्र नामपर ईश्वरकी रची विधर्मी प्रजापर अत्याचार करना अनार्यों का स्वभाव है। (शत्रुके प्रति बुद्धिमान् का दृष्टिकोण) नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः ॥ ५३४ ।। बुद्धिमानोंक शत्र नहीं होते। विवरण-- बुद्धिमान् लोग किसी भी बाह्य शत्रुको स्वीकार नहीं करते । वे तो मनुष्य की नियुदिता, अचातुर्य और ज्ञान को ही उसका शत्र पाते हैं. ये निवास या ज्ञान को पसभा का ज्ञानी बने रहते हैं । किया बाह्य शत्रुको शव मानना ही अज्ञान या निर्बुद्धि ता है। बुद्धि. मान वे हैं जो अपनी बुद्धि के सफल प्रयोगोंसे बाह्य शत्रुओं के माक्रमणको स्थिरचित्तसे तथा दृढतासे व्यर्थ करके अपने मन की शांति को सुरक्षित रखते हैं । बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता शत्रुओं के शत्रुताचरणको अपने विजय मनोबलसे व्यर्थ करने में ही है। संकल्प गर्व हानि पहुँचाने वाले लोग शत्रु कहाते हैं । क्योंकि अज्ञान मनुष्य की सबसे बडी हानि करता है इसलिये अज्ञानसे बडा मनुष्यका कोई शत्रु नहीं है। मनुष्य -समाजको अपने इस शत्रुसे अपनी संगठित शक्ति से लडना चाहिये और इसे संसार भरमें से निष्कासित करके छोडना चाहिये । परन्तु मनुष्य की कैसी मति मारी गई है कि वह इस वास्तविक शत्रुको ज्योंका त्यों शनिमान रहने देकर वेवल बाह्य शत्रुभोसे लइकर हारने में ही मानव-जीवन नामक इस लघु सुअवसरको कूड़े के ढेरके
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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