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________________ कुसाहित्य समजको भ्रष्ट करता है ४७३ शास्त्र सच्छास्त्र भसच्छास्त्र भेदसे दो प्रकारके होते हैं । प्रन्थलेखक लोग अपने जीवनों में बुरी भली घटनाओं के रूपमें अमृत तथा विष दोनोंहीको अनुभव करते हैं। किसी भी विचारशील लेखकको अपने अनुभूत विषको प्रन्थका रूप नहीं देना चाहिये । उसे तो अपने अनुभूत दुष्प्रसंगों को संसा. रको उसके दुष्प्रभावसे बचाकर अपने में ही जीर्ण होने देने के लिये गुप्त रखना चाहिये। उन्हें उसे भरने कटु अनुभवों को संसारके सामने रखकर संसारमें पाप बढाने में भूलकर भी सहायक नहीं बनना चाहिये । परन्तु संसारका आधुनिक लेखक-समाज इतना अंधा और गंदा हो चुका है कि वह अपने मिथ्या विश्वासों, कुरुचियों, भ्रान्तियों, प्रमादों तथा अपने जीवन के असामाजिक अनुचित अधार्मिक कामोंको भी अपनी धार्मिकता या सत्य भाषिताके प्रख्यापनके लिये या दूसरोंसे महात्मापनका प्रमाणपत्र लेने के लिये ग्रन्थका रूप देने में लज्जा और कन्यहीनता अनुभव नहीं करता। वह नहीं जानता कि मेरे यशस्वो समझे हए लेखकके ये लेख मेरे देश के मल्पमति पाठकों के लिये दुष्टान्त उपस्थित करनेवाले बन कर हालाहलका काम करेंगे और मेरे समाजमें पाप फैलानेवाले बनेंगे ? जवसे मनुष्यने अपना विवेक खोया है, तबसे समाजके दुर्भाग्यसे कुप्रन्धों को भी ग्रंथोंकी श्रेणी में खडे होनेका कुअवसर प्राप्त हो गया है । विचारशील लेखक अपने जीवन. व्यापी अमृतास्वादको ही ग्रन्थका रूप दिया करते हैं। उनके इस अमत. वर्णनसे बाबालवृद्ध किसी भी पाठकके मोहग्रस्त होनेका डर नहीं होता । अच्छे लेखकोंमें भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा न होनेसे उनके प्रन्थ मनुष्यको दिग्याष्टि देनेवाले होते हैं । उपन्यास नाटक, गल्प कहानी, अश्लील गाथा, कामोत्तेजक तुकबन्दी, आत्मचरित्र आदि सब आमच्छास्त्रों की श्रेणी में आते हैं। पाठान्तर- दुर्मेधसां महच्छास्त्रं बुद्धिं मोहयति । विशालकाय दुरूहशास्त्र दुर्बुद्धियों की बुद्धि कुंठित कर डालता है। ज्ञानको शास्त्र कहलानेवाले ग्रन्थों में से उधारा नहीं लिया जा सकता। सत्यका शासन ही शास्त्र है । सस्य मानवका स्वरूप है। सत्य ज्ञान तथा
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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