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________________ अजितेन्द्रियतासे ठगईमें आना निश्चित ४७१ अथवा- शत्रु अपनी चतुराईले मित्रता दीखने लगता है। अपने मनमें शठता और कपट रखनेवाला शत्रु अपने दुर्भावको मीठी वाणी तथा दिखावटी सौजन्य से छिपाकर सामनीतिसे मित्रका भेष भर लेता है। भोला मानव लोभाकान्त होकर विश्वास न करने योग्यका विश्वास कर लेता और दुःख भोगता है । इसलिये मनुष्य दिखावटी मित्रों के धोकेमें फंसनेसे बचे रहने के लिये पूर्ण सतर्क रहे। ( अजितेन्द्रियतासे ठगईमें माना निश्चित ) मृगतृष्णा जलवद् भाति ।। ५१७॥ जैसे मृगतृष्णा जल सी दीखने पर भी जल नहीं होती, इसी प्रकार वचक लोग लुभावनी वातोके ऐसे हरे-भरे उद्यान लगा. कर प्रस्तुत कर देते हैं कि अजिनेन्द्रिय योद्धा उन्हें सच मानकर उनके वाग्जालमें फँस जाते. ठगईमें आ जाते और अपने संग्राम करने के लक्ष्यसे भ्रष्ट होजाते हैं। ऐसे अवसरोंपर अजितेन्द्रियोंका पराजय निश्चित होता है। विवरण-- धोख के स्थानों में छिपा तो कुछ और होता है और दीखता कुछ और है। बुद्धिका उपयोग धोके से बचकर रहने में ही है । जैसे व्याध मृगों को बीनसे मोहित करके उनका आखेट करते हैं इसी प्रकार शत्रु लोग प्रलोभनों के पाशोंसे बांधकर मनुष्य का सर्वनाश करते हैं । वंच. कोंकी ठगई में न आना बुद्धिमानोंका कर्तव्य है । 'मगाणां तृष्णा मृग. तृष्णा' मूढ मृग तीन धूपके समय मरुभूमिको तप्त बालुकाओंकी दीप्तिको जलकी तरंग समझकर पानी पानेकी मिथ्या अभिलाषासे उस ओर दोडते हैं और वह दीप्ति उनसे मागेही मागे सरकती और उन्हें प्यासा मारती चली जाती है। उनकी यह मूढ वन्ध्या भभिलाषा ही मृगतृष्णा है। पाठान्तर- जलार्थिनां जलवत् मृगतृष्णा प्रतिभाति । मृगतृष्णा जलार्थियों को जलनुल्य प्रतीत हुमा करती है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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