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________________ ४५६ चाणक्यसूत्राणि ( आशाके दास सदा श्रीहीन ) न चाशापरैः श्रीः सह तिष्ठति ॥ ५०४ ॥ आशापरायण व्याक्त सदा श्री-हीन रहा करते हैं। विवरण- आशा अर्थात् विषय-स्पृहाके पीछे-पीछे मारे फिरनेवालों ( और यदि वह पूरी न हो तो अपने भापको अकृतार्थ, असफल और विनष्ट मानकर हतोत्साह हो बैठने वालों ) के पास सम्पत्तियें निवास नहीं करती। सम्पत्तियां तो भयंकरसे भयंकर विपत्तिके दिनों में भी साहसको कभी न त्यागनेवालों, निराशा दीखनेपर भी कभी उद्यम तथा कर्मका त्याग न करनेवालोंके ही साथ रहती हैं । यदि मनुष्य आशापर निर्भर न रहकर कर्तव्यपालनपर निर्भर रहे तो श्री (सफलता ) को झख मारकर उसके पास रहना पडे । आशाके दासोंके पास चाहे जितनी श्री ( भौतिक ऐश्वर्य ) मा जानेपर भी उनकी श्रीहीनता कभी नहीं मिटती। अतृप्त कामना ही आशा है । कामनादग्ध हृदय कभी तृप्त होना नहीं जानता । माशा-परा. यण व्यक्तिका धन-भंडार उपकी दृष्टि में सदा ही अधरा रहता है। समस्त विश्वको अपना भोग्य बनाने की कल्पना सदा ही उसके मनको दुखाती रहती है । इसलिये माशापरायण लोग सब समय जिस किसी प्रकार धनोपार्जन करने में सब प्रकार के गर्हित उपायों का सहारा लेकर (धनोपार्जन ) करते हुए भी आशानुरूप धन पाने से वंचित रहते हैं। कर्तव्य शीलतासे संपन्न बनकर सन्तोष धनका धनी बनना उनके भाग्य में कभी नहीं होता। उनके हृदयमें कामनारूपी दरिद्रताका अटल निवास बन जाता है । दुराशा परिहृत्यैव सदाशां वर्धयेत् सदा। मनुष्य दुराशा ( या बन्धनरूप आशा ) को त्यागकर भबन्धनकारिणी सदाशा ( सत्य निर्भरता ) पर ( जिसे ईश्वरेच्छा भी कहते हैं ) स्थिर रहे ! 'अनिर्वेदः श्रियो मूलम् ।' उत्साह न छोडना, खिन्न न होना, कातर न होना ही श्री-प्राप्तिका मूल है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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