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________________ ४३६ चाणक्यसूत्राणि होनेपर अपनेको दुःखमग्न निराश्रय अवस्थामें पाता है। भौतिक सुखनाशके पश्चात् निराशाको घोर अंधेरी रातें अविचारशील मनुष्यके सामने मा खडी होती हैं । ऐसे समय यदि मनुष्यके निराशासे टूकटूक होनेवाले भमहृदयको बचानेवाली कोई शाश्वत वस्तु इस संसारमें है तो वह भारतीय ऋषियोंका ढूंढा हुभा मारमस्वरूपका परिज्ञान हो है । इसे पा लेनेपर फिर मनुष्यको हताश, निराश, दुःखी और साहसहीन होना नहीं पड़ता। पारम. स्वरूपको जान लेना ही आत्माको पा लेना है । ज्ञानार्जित अम्रियमाण सुख ही शाश्वत पद है । इसीके विषयमें श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है - नेहाभिकमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् । स्वरूपज्ञान ऐसा ज्ञान है जो प्रारंभ तो होता है परन्तु फिर नष्ट होना नहीं जानता । स्वरूपावबोधके इस मार्गमें पाप,ताप आदि नामोंवाले दुःख नहीं रहते। इस धर्मका थोडासा भी आचरण मनुष्यको अज्ञानरूपी महा. भयंकर संसार-भय से बचा लेता है । पाठान्तर- स्वर्गस्थानं न शाश्वतम् । ( भोगानुकूल कर्मके प्रभावका काल ) ( अधिक सूत्र ) यावत्पुण्यफलं तावदेव स्वर्गफलम् । जबतक पुण्यफल भोगानुकूल कर्मका प्रभाव रहता है तबतक हो स्वर्गफल ( भोग सुख ) रहता है। विवरण- जैसे तीरमें जितनी शक्ति भरकर फेंका जाता है वह उतनी शक्तिके समाप्त होनेपर गिर जाता है, इसी प्रकार पुण्य ( भोगानुकूल ) कर्मकी जितनी मात्रा होती है उसी परिमाणसे सुखको मात्रा बनती है। भौतिक फलाशासे किये हुए कर्मका अनुकूल फल उसे ( सुखको ) देनेवाले नाशवान पदार्थक बने रहने तक रहता है। किन्तु फलाकांक्षारहित कर्मकी प्रेरिका जो शुद्ध भावनारूपी अनासक्ति होती है वह चिरस्थायी होती है। वह नष्ट नहीं होती। उसका माधुर्य तो कभी भी समाप्त नहीं होता।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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