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________________ रात्रिभ्रमण अकर्तव्य ४०१ ( जीवनका ऊंचा मापदण्ड मनुष्य के सुखका विनाशक ) ( अधिक सूत्र ) स्वयमेव दुःखमधिगच्छति राजचर्यात् । मनुष्य अपनी घनशक्तिसे अधिक राजाओंके आडम्बर (ठाठबाट ) बनाकर अपना व्यय बढाकर अपने आपको दुःखों में फंसा लेता है | मनुष्यका भाग अपने ही हाथमें सुरक्षित या अरक्षित रहता है 1 एतदेवात्र पाण्डित्यं यदायादल्पतरो व्ययः । चतुराई तो यह है कि व्यय आयसे न्यून हो । यः काकिनीमध्यथप्रणष्टां समुद्धरे निष्कसहस्रतुल्याम् । कालेषु कोटिष्वपि मुक्तहस्तस्तं राजसिंहं न जहाति लक्ष्मी । ॥ जो कौडीको भी कुमार्ग से नष्ट न होने देकर सहस्र सुवर्ण मुद्राओंकी भांति बचाता और योग्य समय आनेपर करोडो मुद्राओंको मुक्तहस्त होकर व्यय कर देता है लक्ष्मी उस राजसिंहको कभी नहीं त्यागती । ( रात्रिभ्रमण अकर्तव्य ) न रात्रिचारणं कुर्यात् ॥ ४६४ || रात्रि में भ्रमण न करे । विवरण - रात्रिमें निशाचर दुश्चरित्र मनुष्य तथा हिंस्र पशु निःशंक होकर विचरण करते हैं इसलिए रात्रि भ्रमणसे प्राणसंकट होसकता है । रात्रि में समागत विपत्तिको दिखानेवाला प्रकाश तथा सहायकोंका सान्निध्य न होनेसे उस समय विपत्ति मनुष्यको सहसा पकड़ लेती है और रात्रिकालीन असावधानता से अप्रतिकार्य हो जाती है। रात्रि में विपद्धारक सहायकों का मिलना भी प्रायः कठिन होता है। रात्रिभ्रमण से शरीर में वायुकोप, अग्निमान्द्य, रूक्षता और स्वास्थ्यहानि होती है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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