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________________ ३७६ चाणक्यसूत्राणि (धर्मका मूलाधार ) न बेदबाह्यो धर्मः ॥४१४॥ धर्म वेदसे बाहर नहीं होता। यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना संप्रकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हिसः ॥ मनुने जिसका जो धर्म बताया है वह सब वेदमें वर्णित है । वेद समस्त ज्ञानका भागर है। वेदविरुद्ध चलनेसे धर्म नहीं होता। वेदशासनके अधीन रहना ही मानवधर्म है । आत्मज्ञान मानव हृदय में स्वभावसे विद्यमान है। मानवहृदय में स्वभावसे विद्यमान् आत्मज्ञान ही ऋषिप्रचारित वेद है। भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सासे हीन ऋगादिग्रन्थ वेद कहाते हैं। मात्माका अद्वैत अस्तित्व स्वीकार न करनेवाले धर्म वेदबाह्य धर्म कहाते हैं। वेदवाह्य धर्मों अर्थात् भ्रम, प्रमाद, विप्रलिपलासे अभिभूत लोगोंके रचे हुए ग्रन्थों या उपदेशोंसे प्रति. पादित धोका आचरण करने से मनुष्य का अकल्याण होता है। मैं कौन हूं? संसार क्या है ? मेरे दूसरों के तथा इस संसारके परस्पर क्या संबन्ध हैं ? इन अतीन्द्रिय तत्वोंपर अनुभवपूर्ण प्रकाश डालने वाले ग्रन्थ वेद कहाते हैं। अपनी इन्द्रियशनियारर विजय पाकर शकिके यथार्थ स्वामांकी विजयमयी स्थिति लेकर रहना मनुप्यका जीवित वेद है। मनुष्यको कल्या. णका मार्ग दिखानेवाली उसकी सदसद्विचारबुद्वि या उसका इन्द्रियविजय ही वेद है। " सकलं हि शास्त्रमिन्द्रियजयः ।" इन्द्रियविजय ही वेदवेदान्तोंका सार सर्वस्व है । तत्वज्ञानकी जो अन्तिम साधना है वही तो इन्द्रियविजय है। ससस्यको तो त्याग देना और सत्यको अपनाये रहना ही धर्म है । धर्म मनुष्य की वह भावना है जो लोककी मर्यादा बनाये रखती अर्थात् उसके ऐहिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के उत्थानका कारण बनती है। hebtw
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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