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________________ चाणक्यसूत्राणि (सार्वजनिक जलोंके प्रति कर्तव्य ) नाप्सु मूत्रं कुर्यात् ॥ ४०६॥ जलमें मूत्र न करें। विवरण- जलमें मूत्रत्यागसे वह दुष्ट, विषाक्त और अग्राह्य होजाता है। उसे पीनेसे रोगोत्पत्ति तथा स्वास्थ्य नाश होता है। जल सार्वजनिक संपत्ति है । कब किसे उसे पीना पडेगा इसका कोई नियम नहीं है। प्रत्येक मनुष्यपर सार्वजनिक स्वास्थ्यका जो उत्तरदायित्व है उसकी दृष्टिसे उसे जलमें मूत्रत्याग न करना चाहिये। न मूवं पथि कुर्वीत, न भस्मनि, न गोबजे, न फालकृष्टे, न जले, न चित्यां, न च पर्वते । न जीर्णदेवायतने, न वल्माके कदाचन ।। (मनु) मार्ग, भस्म, गोष्ठ, जुतीभूमि, जल, चिता, पर्वत, जीर्ण देवस्थान तथा वल्मीकमें कभी मूत्र न करे। इसीप्रकार देवालय, परिषद्, वासगृह, तीर्थस्थान, विचारसभा, विद्याशाला आदि स्थानों में भी मूत्रत्याग न करे। मूत्र के लिये नियत या अपेक्षित स्थानमें मूत्रत्याग करे। परन्तु ध्यान रहे कि मूत्रके वेगको धारण करना भी रोगकारक है। खडा होकर जल पीने या मुत्रत्याग करनेले भण्डवृद्धिका रोग उत्पन्न होता है । पेय तथा स्नातव्य जलको दूषित करने की प्रवृत्ति अपने जीवनकी निर्मलता त्यागकर उसे मलिन बना लेनेकी कुप्रवत्तिका द्योतक है। बाह्य स्वच्छताका अमाव मानसिक मलिनताका द्योतक होता है। मानसिक मलिनता दूर करनेपर बाह्य स्वच्छताकी रक्षा करना स्वभाव बनजाता है । बाह्य अस्वच्छता साक्षी देती है कि इस अस्वच्छ व्याककी मलिनता इसके मन में समा चुकी है। बाह्य सदाचारीकी लोक दृष्टि से बचकर पाप करनेकी प्रवृति भी मनकी मलिनता ही है । मनकी शद्धताका प्रचार ही सूत्रका उद्देश्य है । समाजके जोबनाधार जला. शयको मलमूत्र, टीवन, गण्डूष आदिसे कलुषित करने की विवेकहीनता अवसर मिलनेपर समाजको भी कलुषित किये बिना नहीं मानती।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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