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________________ देवापमान अकर्तव्य ३६५ अकृतज्ञ अनार्यो के हाथ हानि उठानेके पश्चात् ही अकृतज्ञ लोगों से सावधान रहनेका अवसर आता है । पात्र अपात्र के तात्कालिक विचारके द्वारा योग्य पात्रका उपकार करके ही मित्रलाभ होना सम्भव है । सर्वा • ङ्गीण परीक्षा किये बिना किसीको मित्र रूपमें अपनाना या शत्रुबुद्धि ले त्यागना सम्भव नहीं है । आर्यत्व या अनार्यव किन्हीं व्यक्तियोंके भवयवों, कुलों या वंशों मे सीमित नहीं है। मनुष्यको मानसिक स्थितिमें दो आर्य या अनार्य की पहचान है । व्यवहारसे ही आर्य अनार्य पहचाने जासकते हैं, लम्बी नासिका, विशाल ललाट, गौर वर्ण या हड्डियों की बनावटसे नहीं । इस सूत्र का यह अभिप्राय नहीं है कि किसी मनुष्यको जन्मके कारण अनार्य तथा अकृतज्ञ समझकर त्याग दिया जाय । किन्तु अनुभव के आधार पर ही आर्य अनार्यकी पहचान करके त्याज्य ग्राह्यका निर्णय किया जाय । ( उपकारक के प्रति साधुकी कर्तव्यशीलता ) स्वल्पमप्युपकारकृते प्रत्युपकारं कर्तुमार्यो न स्वपिति ॥ ४०१ || सत्पुरुष जवतक उपकारीका प्रत्युपकार करनेका अपना मानवोचित कर्तव्य पूरा नहीं कर लेता तबतक क्षणमात्र भी निश्चिन्त नहीं बैठता 1 विवरण - आर्थिक, शारीरिक, वाचिक तथा मानसभेदसे उपकार चार प्रकारका होता है। मनुष्य धन देकर, किसी विपदग्रस्त के लिये किसी प्रकारका परिश्रम करके, हितकारी मंत्रणा या हितकारी वाचिक सहायता देकर, अथवा उपकार्यकी हितकामना से किसीके कल्याणसें सहायक हो सकता है। ( देवापमान अकलव्य ) न कदापि देवताऽवमन्तका ॥ ४०२ ॥ देवबुद्धिसे पूजे जानेवाले स्थान, प्रतिमा, चित्रादि वस्तु या
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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